पार्ट 01
एक बार की बात हैं भगवान शिव पुत्र कार्तिकेय जी के मन में सूर्यपुत्री ताप्ती जी की महिमा जानने की ईच्छा व्यक्त हुई । तब वे पिता शिव शंकर जी के पास गये और बोले पिताजी क्या सूर्यपुत्री ताप्ती जी का महात्म नही हैं ? क्या श्री तप्तीजी नदियों मॆ प्राचीन नही हैं ?
तब शिवजी बोले - पुत्र सूर्यपुत्री ताप्ती जी कि बड़ी महिमा है, पुराने समय मॆ जो श्री नारद जी ने कहाँ था । वह मेरे द्वारा ही कहाँ हुआ हैं । मैंने ही उन्हे बताया था कि जब गंगा ,नर्मदा ,गोमती आदि नदियाँ नही थी तब से सूर्यपुत्री ताप्ती प्रकट हुई हैं । आगे भगवान शिव कहने लगे पुत्र श्री गंगाजी मॆ कई दिनो तक स्नान करने , नर्मदा जी के जल के दर्शन करने से और सरस्वती जी के संगम का जल पीने से जो पवित्रता होती हैं ,वही पवित्रता श्री ताप्ती के स्मरण मात्र से मनुष्य को होती हैं । यह ताप्ती आति प्राचीन हैं ।
इतना सुनकर कार्तिकेय जी पूछा - हे तात मैंने ताप्ती जी के दोनो किनारो आपके सुन्दर अर्चित लिंगो का
दर्शन किया है प्रिय अनुज गणेश ने भी मां
तापी महत्ता का गुणगान किया है ,तात आप
तापी जल क्यो धारण करते हो मुझे बताईये ।
तब भगवान शिव बोले- हे पुत्र कार्तिकेय जिस तरह भगवान सुर्यदेव अपनी इच्छा से गति करते है एवं सदैव
कर्मशील रहते है । उन्हे इस ब्रम्हाण्ड की आत्मा कहा जाता है उनके बिना सृष्ठी चारो अन्धकार ही
रहेंगा । उसी तरह पृथ्वी लोग पर मां तापी के बिना जीव-जीवन सम्भव नही था । मां ताप्ती
तीनो लोको के तापो का निवारण करती है ,वो ही सृष्टी की आदिगंगा है । मां तापी मोक्ष्यदायिनी है ,जिव और
जिवन का आधार है जो भी उनके शरण मे जाता
उसके सभी तापो को हर लेती है तापी जी ।
तब भगवान शिव आगे कहने लगे पुत्र मै तुम्हे ताप्ती महात्मा सुनाता हुँ जिसके ध्यान मात्र से मनुष्य भवपार हो जाता हैं । भगवान शिव बोले - हे पुत्र कार्तिकेय जब सूर्य नारायण का विवाह भगवान विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा से हुआ । विवाह के कुछ समय पश्चात उन्हें तीन संतानो के रूप में मनु, यम और यमुना की प्राप्ति हुई इस प्रकार कुछ समय तो संज्ञा ने सूर्य के साथ निर्वाह किया परंतु संज्ञा सूर्य के तेज को अधिक समय तक सहन नहीं कर पाईं उनके लिए सूर्य का तेज सहन कर पाना मुश्किल होता जा रहा था । इसी वजह से संज्ञा ने अपने पति की परिचर्चा
अपनी दासी छाया को पति सूर्य की सेवा में छोड़ कर ,वह एक घोडी का रुप धारण कर मन्दिर में तपस्या करने चली चली गईं। अपनी इच्छा से संसार को गति देने वाले हिरण्यगर्भ भगवान सुर्य भी अपने तेज से संसार को गति दे रहे थे उनके प्रचण्ड तेज के कारण सृष्टी पर महाप्रलय आया था । पृथ्वी पर गर्मी और तापमान इतना अत्यधिक बढ़ गया था ,जिससे जमीन उर्वरा शक्ति पुरी तरह
खत्म हो गई थी । पृथ्वी के हिम झिलाखण्ड पिघलकर
पीछे हट रहे थे ।अत्यधिक गर्मी से सबसे अधिक पृथ्वी
पर छाई प्राण वायु पर्तो पर पढ़ रहा था , जिससे सृष्टी के सभी जीव ब्रह्राजी मे विलिन होने लगे । ब्रम्ह्राजी ने पुन : सृष्टी रचना करने की कोशिश की लेकिन सुर्यदेव के
प्रचण्ड तेज से वे भी व्याकुल हो गये ।
अत : ब्रम्ह्राजी ने भगवान शिव और विष्णू
जी का ध्यान किया ।तब भगवान विष्णु ने पृथ्वी मां और
देवताओ से कहा कि आप चिंता ना कीजिये इस बार भगवान हिरण्य गर्भ सुर्यदेव की पुत्री ताप्ती जन्म
लेंगी जो सारे जगत के ताप हार कर जन कल्याण
करेंगी । इस प्रकार विष्णु के कहने पर सभी देवता गण एवं पृथ्वी मां भगवान सुर्यदेव के पास गये और उनसे प्रार्थना की इस महाप्रलय से सृष्टी को विनाश होने से बचाये ।अत:
भगवान सुर्यदेव ने अपनी पुत्री ताप्ती का ध्यान किया ।
सुर्यपुत्री ताप्ती ताप्ती उनके ताप से उत्पन्न होकर सारी दिशाओ एवं आकाश को अलौकिक करते हुए अपने पिता का सन्ताप दूर करते भूलोक पर प्रकट हुई ।इस प्रकार सृष्टी निर्माण के समय प्रथम नदी के रुप में ताप्ती जी का अवतरण हुआ। मां ताप्ती जी का जन्म आषाढ़ शुक्ल
सप्तमी को दोपहर में हुआ।सुर्यदेव ने अपने तेज
से ताप उत्पन्न करके ताप्ती जी को अवतरित किया था ,इसलिए सुर्यपुत्री का नाम तप्ती हुआ ।महाभारत ,भविष्यपुराण,स्कन्धपुराण
आदि अनेक पुराणो मे माँ तापी जी का
उल्लेख मिलता है ।
है ।
पार्ट 02
शिवजी बोले -पुत्र ताप्ती जी आदिगंगा हैं वो सृष्टि आरम्भ से इस धरा पर हैं ,सभी नदियाँ ताप्ती जी का सेवन करती हैं । कार्तिकेय बोले - सभी नदियाँ कैसे ताप्ती जी सेवन करती हैं , मुझे नदियों की इस कथा बताइये ।
भगवान शिव भोले - पूर्वकाल मॆ गंगाजी मेरे पास कैलाश आयी और मुझसे से बोली हे नाथ ! नारद वगैरह मुनियों को ताप्ती महात्म मिला था ,उसका प्रभाव है या नही ।
तब पुत्र मैने बताया था की - पूर्वकाल मॆ नारद मुनि ने बड़े कष्ट से ताप्ती महात्म प्राप्त किया था। तीनो लोको मॆ उसका प्रभाव कहने मॆ कौन समर्थ हैं ।
तब मैने ने कहाँ हे देवी गंगा आप तो ब्रम्हलोक मॆ ब्रम्हा जी के कमणडल मॆ रहती हो तुम्हे बड़ी तथा महापापनाशक श्री ताप्ती जी के बारे मॆ कैसे पता चला ।
गंगाजी बोली हे नाथ मै ब्रम्हलोक निवास करती हूँ और मैने ब्रम्हाजी के मुख से जो सुना और आश्चर्च देखा वह ध्यान से सुनिये..अत्यंत हर्ष के साथ हम सभी बड़ी नदियाँ ब्रम्हलोक गई थी ।
वहाँ ब्रम्हाजी ने हमारे सामने उपदेश दिया था कि जो पुरुष ताप्ती जी किनारे मृत्यु प्राप्त होगा और जो पुरुष ताप्ती के जल से पुष्ट होगा और ब्रम्हाजी ने कहाँ कि ताप्ती किनारे रहने वाले पुरुष यदि महापापी दुराचारी और निर्दयी हो तो भी स्वभाविक रीति से सतगति को प्राप्त होंगे ।
ऐसा ब्रम्हाजी के मुख से उपदेश सुनकर यमराज जी को बहूत दुख :हुआ हुआ और उन्होने विचार किया कि अब मै क्या करूँ !
किस प्रकार मै सभी नदियों को बुलाकर श्री ताप्ती से प्रार्थना कर सकूंगा कि हे देवी जो श्रद्धा विहीन पापी पुरुष भी यदि सेवन करे आपके जल का तो उसे शास्वत स्थान मत देना । यमराज ने प्रार्थना कि तब ताप्ती नर्मदा आदि नदियाँ दिव्य अलंकार वाले विमान मॆ बैठकर जगत को उजवल करने वाली नदियाँ यमपूरी मॆ आयी॥
इसके बाद मॆ विनय पूर्वक धर्मराज ने
ताप्तीजी का बड़ा महात्म देखकर सबसे पहले तप्तीजी को आसान प्रदान किया। ताप्तीजी का अधिक महात्म देखकर सब नदियाँ रुष्ट होकर लौटने लगी ,तो धर्मराज ने सबको प्रणाम कर कहा की नदियों यह तपती सूर्य की पुत्री हैं , सबसे प्रथम हैं , तुम इसलिये क्रोधित हो रही हो ? यदि तुम्हे मेरे वचनों पर विश्वास नही हो तो हो तो मार्कण्डेय मुनी से पूँछ लो ! वो हि आपकी समस्या का समाधान कर सकते है क्युकि वे सात कल्पो के बारे मे जानते है । सभी नदियाॅ लोमश मुनि के पास पहुची।
तब लोमश मुनि ने कहा की ताप्ती जी ही सबसे
प्राचिन नदी है , तो सभी जिज्ञासावश
पुछा की हमे तापी जन्म कैसे हुआ बताये ।
तब लौमश ऋषि ने कहाँ की आप ब्रम्हाजी के पास जाये सॄष्टि के रचयिता हि आपको बता पायेंगे । सभी नदियाँ फिर ब्रम्हलोक गयी और विचित्र आसनों पर बैठने के बाद उन सब ने नम्रता पूर्वक ब्रम्हाजी से पूछा की नदियों मॆ श्रेष्ठ कौन हैं ? हे नाथ तब ब्रम्हाजी ने कहाँ की सूर्यनारायण के शरीर से निकली ताप्ती प्रथम हैं जो की इक्कीस कल्पो का लगातार मुझे स्मरण हैं ।
इस प्रकार कहने पर हम सभी नदियों ने गर्व छोड़कर
अपनी शंका के बारे मॆ पूछा कि किस तरह सूर्यदेव के शरीर से ताप्ती उत्पन हुयी ।
तब हमे ताप्ती जन्म के बारे मॆ पता चला । हे गिरजापति महादेव अब कृपा करके मुझे ताप्ती महात्म जानने का रास्ता बताये । तब महादेव बोले , श्री यमुना जी ताप्ती जी की बहन हैं , वह हि बता सकती हैं ताप्ती महात्म और बहन होने के कारण उस पर क्रोध नही करेंगी । बाद मॆ उतावली होकर गंगाजी यमुना जी से मिलने गयी । इस प्रकार यमुना जी और गंगाजी मॆ मित्रता हुयी ।
कूछ समय बाद देवी गंगा ने यमुना जी को महादेव जी के पास आने का निमंत्रण दिया जिससे ताप्ती महात्म जानने का कार्य पूर्ण हो सके । देवाधि देव महादेव ने आदर पूर्वक कहाँ , हे नदियों मॆ श्रेष्ट यमुना ! तुम शीघ्र ताप्ती महात्म सूनावों । तब यमुना बोली हे नाथ ताप्ती जी मेरे बहन होते हुये भी क्रोधित हुयी तो मेरी रक्षा कौन करेंगा । तब महादेव जी ने बोले हे देवी यमुना - मै हुंकार मार कर तुम्हे बचा लूंगा , ताप्ती के श्राप के भय के कारण इस कार्य को तुम्हारे सिवाय कोई करने मॆ समर्थ नही हैं । यमुना जी ने काली गाय का रुप धारण किया और ताप्ती पूर्णा संगम पर ताप्ती महात्म जानने के लिये प्रवेश किया तब
यमुना जी का दुष्कर्म जानकर सूर्यपुत्री ताप्ती तीव्र वेग प्रवाह से यमुना को व्याकुल कर दिया तब यमुना जी डुबकी खाती हुयी रुदन करती हुई दिखाई दी । तब स्वयं मैं भी आश्चर्यचकित हुआ और सफेद रंग कि गाय (यमुना) को उस स्थान का ध्यान किया तब वह गाय ताप्ती जी के प्रभाव से सफेद रंग कि हो गई । ऐसा ध्यान से आभास हुआ , तब मैने हुंकार करके उस गाय कि रक्षा की । यमुना जी बार बार ताप्ती जी का ध्यान करते हुये भी ताप्ती महात्म ना पा सकी । कलांतर मॆ इस स्थान का नाम भूसावन पड़ा । ये तीर्थ प्रसिद्ध तपती पूर्णा संगम के नाम से विख्यात हुआ ।
इस तीर्थ का सेवन करने से देवी यमुना और शिव जी क्रपा बनी रहती हैं l भगवान शिव बोले - हे पुत्र
जब राजा सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों के मोक्ष के लिये गंगाजी को धरती पर लाने के लिये हजारो वर्ष तक तप किया किंतु गंगाजी धरती पर ना ला सके , और तप करते करते उनकी मृत्यु हो गयीं ।
राजा सगर की मृत्यु की सूचना पाकर उनके पुत्र अंशुमान को बड़ा दुख हुआ और अंशुमान ने संकल्प लिया अब मै इस अधूरे कार्य को पूरा करूँगा तथा परंतु कठोर तप करने के बाद भी गंगाजी धरती पर नही आयी । इस तरह राजा सगर की दो पीढ़ीया समाप्त हो गयीं ।
गंगा जी को धरती पर लाने भागीरथ ने हजारों वर्ष घोर तपस्या की थी. उसके फलस्वरूप गंगा ने
ब्रम्ह कमण्डल (ब्रम्हलोक से) धरती पर भागीरथ के पूर्वजों का उद्धार करने आने का प्रयत्न तो किया परंतु
वसुन्धरा पर उस सदी में मात्र ताप्ती नदी की ही सर्वत्र महिमा फैली हुई थी । ताप्ती नदी का महत्व समझकर
श्री गंगा पृथ्वी लोक पर आने में संकुचित होने लगी, तदोउपरांत भगवान विष्णु स्वयं ब्रम्हलोक मे आये और माॅ गंगा जी से कहने लगे ,हे देवी तपस्वी इंसान को कम-कम एक ही जन्म में वरदान दे देना चाहिये , परन्तु राजा सगर की दो पीढ़ीयाॅ समाप्त हो गयी है, और तीसरी पीढ़ी
भगीरथ के अनेक वर्ष बीत चुके है । हे देवी कपिल मुनि आपको बुलाना चाहते है तो आपको जाना चाहिये ।
जब कपिल मुनि जैसे तपस्वी नित तुम्हारे जल मे स्नान करगें तो तुम्हारे पाप नित धुलते रहेंगे।अत : हे देवी आप मुत्यु लोक पर जाने की कृपा करे ।
गंगाजी ने भगवान विष्णु जी की बातो का उत्तर देते हुए
कहा कि भगवन ताप्तीजी मुझसे पहले धरातल पर
उपस्थित है और ताप्तीजी के तेज के सामने मेरा
प्रभाव कम हो जायेंगा । इस पर भगवान विष्णु ने कहा कि पृथ्वी लोक धरातल पर जितने भी ताप्ती पुराण है , उन्हे मृत्यु लोग से बुलाकर स्वर्ग लोक तुम्हारे सामने सामने
रख देते है । इस कार्य से ताप्ती जी का प्रभाव तो कम नही
होंगा। किन्तु उसके महत्व को जानेंगे ही नही तो मानेंगे
कैसे । अत: स्वमेव ही उनका ध्यान व मान कम हो जायेंगा । कपिल मुनि की कृपा से तुम्हारा मान बढ़ते
जायेंगा । इस शर्त पर गंगा जी पृथ्वी पर जाने को तैयार हुई । तब भगवान विष्णु ने नारद जी और गंधर्व गण की को पृथ्वी लोक पर ताप्ती जी का अदभूत महात्म चुराने भेजा । तब नारद मुनि तथा गंधर्वगणों की टोली सहित सब लोग श्री ताप्ती जी के तट पर आये और संगीत के साथ लम्बे अंतराल तक उनकी स्तुति की । उससे प्रसन्न होकर सूर्यपुत्री ताप्ती ने नारद मुनि और गंधर्वगणों की टोली को
दर्शन दिये और कहाँ आप सब किस लिये प्रार्थना कर रहे हो ! आपको तो कूछ भी असाध्य नही हैं ।
मूझे बहुत आश्चर्य हो रहा हैं । हे देव ऋषि वेद गायन मॆ तत्पर बड़े मुनि आप मेरे पूज्य हैं ।
यदि आप मेरे प्राण भी माँगेगे वह भी दे दूँगी । तब नारद मुनी बोले हे देवी ताप्ती जो तुम्हे प्रिय हैं ,वह आप मुझे नही दे सकती । जो आपको प्राणों से अधिक प्रिय हैं , वही माँगता हूँ । हे देवी सूर्यपुत्री यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं ,तो तुम्हारा महात्म मुझे दे दीजिये तो आपकी कृपा होंगी ।
नारद जी के वजन सुनकर श्री ताप्ती जी बोली -हे नारद जी यह महात्म दुर्लभ हैं फ़िर भी मैं तुम्हे दूँगी । नारद जी ने कपट मन से माँगा फिर भी श्री ताप्ती जी ने अपना महात्म दे दिया ,तब नारद मुनि और गंधर्वगणों की टोली सभी ताप्ती महात्म लेकर स्वर्ग गये और देवी गंगा जी के सामने पॄथ्वी लोक के सभी ताप्ती महात्म रख दिये । तब ब्रम्हपुत्री गंगा जी पॄथ्वी लोक पर आयी और राजा भगीरथ के सौ हजार पुत्रों का उद्धार हुआ । बाद मॆ श्री सूर्यपुत्री ताप्ती जी को ज्ञात हुआ की उनका महात्म हरण गया तो श्री ताप्ती जी को क्रोध हुआ जिसके कारण ऋषि नारद को तापी पुराण चुराने की हत्या का पाप लगा और निस्तेज कुष्ठ रोग मुँह वाले हुये साथ हि सब धर्मों से बहिस्कृत हुये । श्री ताप्ती जी क्रोध मॆ अपने पिता सूर्यदेव से भी तेज हो गयी और देवऋषि नारद को कुष्ठ रोग और गंगा जी को अपने हि कुलवंश मॆ वधू बन कर आने तथा उसकी वंश बेल ना बढ़ पाने का श्राप दे गयीं । ताप्ती जी के क्रोध से देवी -देवता दानव और गंधर्व सभी डर गये ।
कही ऐसा ना हो कि उसकी क्रोधाग्नि मॆ एक बार फिर पॄथ्वी जलकर राख ना हो जाये इसलिये माँ पॄथ्वी अपना वजूद बचाने के लिये श्री ताप्ती जी के समक्ष खड़ी होकर प्रार्थना करने लगी और कहने लगी हे देवी आपने हि मुझे सूर्यदेव के तेज से बचाया जिसके वजह से जल और जीवन सम्भव हुआ । आप हि क्रोधग्नि मॆ दहक उठेंगी तो मेरा तो वजूद हि और जल जीवन दोनो समाप्त हो जायेंगा । हे माँ ताप हारिनि मेरी कोख मॆ पलने वाले जीव -जन्तु आपके भाई मनु कि संतान का क्या होंगा । माँ पॄथ्वी कि प्रार्थना सुनकर सूर्यपुत्री ताप्तीजी ने अपने क्रोध को शांत किया ।
भगवान शिव कहने लगे हे पुत्र कार्तिकेय जब नारद मुनि कुष्ठ रोग मुख वाले ब्रम्हाजी के पास गये उस समय नारद मुनि को आते देख द्वार मॆ पर खड़े वायु देव ने आश्चर्यचकित हो तुरन्त ब्रम्हाजी के पास गये और बोले हे पितामह मुनि श्रेष्ट नारद कुष्ठ रोग वाले ब्रम्हलोक आ रहे हैं ।
तभी ब्रम्हदेव ने घ्यान किया और बोले श्री ताप्ती जी का महात्म हरण करने कि हत्या लगी हैं । मैं ऐसे अपवाद वाले पुत्र का मुख नही देख सकता हूँ ।मैं समाधि मॆ जा रहा हूँ ,तुम नारद मुनि से कहना कि इस समय ब्रम्हपिता के तुमसे मिलने का समय नही हैं । ऐसा कहकर ब्रम्हाजी बोले मेरी बनाई कृति का का नाश करने के लिये मुझसे पूछे बिना नारद ने जो किया और पाया हैं वह कोप से मनुष्य योनि पायेंगे । इस प्रकार ब्रम्हाजी समाधि मॆ बैठ गये ।
जब नारद मुनि आ गये ,तो वायुदेव ने नारद मुनि से कहाँ कि अभी ब्रम्हदेव के पास समय नही हैं । ऐसा सुनकर नारद मुनि ने ब्रम्हाजी असमय समाधि जाने जाने का विचार किया । नारद मुनि वहाँ से लौटकर मेरे पास आये पुत्र कार्तिकेय ! तुम्हारी माता पार्वती और मेरी स्तुति कि
और कहने लगे हे कैलाशनाथ मैं दुष्ट भावना से हूँ फिर भी आपकी शरण मॆ आया हूँ । हे तीनो लोकों से स्वामी
आप अंतर्यामी हो मुझ पर कृपा कर मुक्ति का कोई मार्ग बताये । तब मैने ध्यान द्रष्टि से सबकुछ लिया और मीठे वचनों मॆ कहाँ नारद तुम ताप्ती जी का पुराण हर कर लाये हो इसलिये तुम्हे कुष्ठ रोग हत्या लगी हैं । यह किसी भी तीर्थ मॆ तप्तीजी के प्रभाव के बिना नही जायेंगी । हे नारद मैं ताप्ती जी के तेज और वेग को जानता हूँ ।
उसका कहाँ कल भविष्य को तय करेंगा । मैं स्वयं भी ताप्ती के जल का सेवन करत हूँ । अत :आप गंगाजी के साथ ताप्ती जी कि शरण मॆ जायिये वह शरणागत पर दया करने वाली हैं । वह तुम पर जरूर प्रसन्न होंगी ।
इसके बाद नारद मुनि श्री ताप्ती उदगम मुलतापी आये और गंगाजी का स्मरण किया । नारद मुनि ने 12 वर्ष तक माँ ताप्ती जी का सेवन किया और कठोर तप किया । जिसके बाद माँ सूर्यपुत्री जी जी प्रसन्न हुई ।
माँ ताप्ती कि कृपा से कोप जल गया तभी आकाशवाणी हुई की हे नारद मुनि आप पाप मुक्त हो गये हो ।
इस स्थान पर आषाढ़ सप्तमी के दिन स्वयं देवी गंगा ताप्ती जी का सेवन करने आती हैं ।
हे पुत्र कार्तिकेय।
पार्ट 03
माँ सूर्यपुत्री ताप्ती जी की जन्म कथा सुनकर
कार्तिकेय जी बोले - हे पिताश्री किस प्रकार देवी ताप्ती का विवाह हुआ और किसके साथ हुआ कृपा कर बताईये ।
तब भगवान शिव बोले - संवरण राजा सोमवंश मॆ प्रसिद्ध थे । अगस्त मुनि के श्राप से वरूण देवता मनुष्य योनि मॆ संवरण नाम से आये थे । इसी दौरान जलचरों के स्वामी वरुण देवता के साथ उनका विवाह हुआ ।
शिव आगे कहने लगे - हे पुत्र कार्तिकेय जब देवताओ और दानवो के बिच क्षीर सागर मॆ समुद्र मंथन चल रहा था तब उस मंथन से मनोहर चौदह रत्न निकले थे ।
उन चौदह रत्नों मॆ मदिरा निकली तो सब देवताओं ने वरुण देव को दे दी । इन्द्र सभा से निकलकर वरुण देव लंकापुरी के सुंदर द्वार पर आये और अगस्त मुनि के आश्रम को देखा और आनंदित होकर मदिरा पीने के लिये वहाँ गये । अगस्त मुनि के आसन पर बैठकर वरुण देव ने मधुभाव से मन्दिरा पान किया , उसी समय गंगाजी मॆ स्नान कर अगस्त मुनि वहाँ आ लगे , जलचरों के स्वामी वरुण देव और मदिरा की बूँदें पड़ी देख -अगस्त मुनि क्रोधित हुये और कहने लगे तूने मेरे आश्रम मॆ अनुचित कार्य किया हैं इसलिए मैं तुम्हे श्राप देता हूँ , तू पॄथ्वी पर मनुष्य जन्म पायेंगा ।
तब वरूण देव बोले - हे तपस्वी मेरी रक्षा करो मैने अनजाने मॆ यह दुष्ट कार्य किया हैं ,अत : दयालु मुनि कृपा करे ।
इस पर महान अगस्त मुनि बोले हे जलचरों के स्वामी वरुण देव ! पॄथ्वी पर तू अपने पुत्र का मुख देखेंगा उसके बाद तू पुन : अपना स्थान प्राप्त कर लेंगा ।
इसके बाद वह वरूण देव ब्रम्ह के प्रभाव से पॄथ्वी पर जन्मे क्यूकी मुनि द्वारा दिये गये श्राप को भला कौन बदल सकता था । चंद्रवंश मॆ अजमीढ नामक राजा प्रसिद्ध थे उसका वह वरूण देव पुत्र हुआ ।
वरूण देव के आगमन से राजा पौरव को यश कीर्ति बढ़ने के साथ धर्म की रक्षा होने लगी । ज्ञानी पुरुषों मॆ श्रेष्ट उतम गर्ग मुनि ने ज्ञान द्रष्टि से उस बालक को देखकर कहाँ की यह तो वरूण देव हैं ऐसा जानकर उनका नाम संवरण रखा । गुरु वशिष्ठ से वेदों की शिक्षा प्राप्त कर जब वह सोलह वर्ष का हुआ तब पिता का राज्य प्राप्त कर राजा बनकर प्रजा पालन करने लगा ।
एक दिन की बात हैं जब राजा संवरण वन मॆ आखेट के लिये गये थे । तब राजा संवरण ने देखा की कमलपुष्प जैसे नेत्र वाली चंद्र बिंब जैसे मुख वाली शंक के समान गर्दन वाली तथा यौवन से झुकी हुई दो सखिया सुमेरू पर्वत को सुशोभित करती हुई आकाश मार्ग से पॄथ्वी लोक पर उतरी । अत्यंत सुंदर रुपवति विमला और ताप्ती को देख काम से घायल होकर उस ताप्ती पर मोहित हो गये संवरण !
तब विश्वसुंदरी ताप्ती से राजा संवरण बोले मैं महाराज पौरव का पुत्र हूँ ,मुझे अब तक किसी नारी ने आकृष्ट नही किया । हे सुंदरी तुम कौन हो ! तुम देवी हो ,गंधर्व हो या किन्नर हो ! तुम्हे देखकर मेरा चित्त चंचल हो उठा हैं ।मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ । ताप्ती जी ने संवरण की बातो का कूछ भी जवाब दिये बिना कूछ देर तक संवरण को देखती रही और अदृश्य हो गई । ताप्ती जी के अदृश्य हो जाने पर संवरण अत्यधिक व्याकुल हो गये और कहने लगे सुंदरी तुम कहाँ चली गई ? तुम्हारे बिना मै जीवित नही रह सकुंगा । तुम्हारे सौंदर्य ने मेरा मन चुरा लिया हैं । तुम प्रकट होकर मूझे बताओ की तुम कौन हो और मै तुम्हे कैसे पा सकुंगा। इतना कहकर राजा संवरण मूर्छित हो गिर पड़े । ऐसा सुनकर ताप्ती जी प्रकट हुई और संवरण की ओर देखते हुये बोली हे राजन ! मैं स्वयं आप पर मोहित हूँ ,किंतु मैं अपने पिता के आज्ञा के वश मॆ हूँ । मैं सूर्य की छोटी पुत्री हूँ और मेरा नाम ताप्ती हैं । जब तक मेरे पिता आज्ञा नही देंगे तब तक मैं आपसे विवाह नही कर सकती । यदि आपको मुझे पाना हैं तो मेरे पिता को प्रसन्न करना होंगा । ताप्ती जी अपने कथन समाप्त करते हुये अदृश्य हो गई । संवरण ताप्ती जी को पुकारते - पुकारते धरती पर गिरकर बेहोश हो गये । जब उनकी चेतना वापस आई तो उन्हे ताप्ती जी स्मरण हो आई । सूर्यदेव को प्रसन्न करने हेतु परीक्षा संवरण की रगों मॆ विघुत तरंगे दौड़ उठी । अत : ताप्ती जी को पाने के लिये राजा संवरण ने कठोर तप करना आरम्भ किया अंत मॆ सूर्यदेव ने संवरण की भक्ति से प्रसन्न होकर राजा संवरण की परीक्षा लेने का विचार उत्पन किया । रात्रि के समय सन्नाटा छाया हुआ । राजा संवरण सूर्यदेव की तपस्या में लीन थे । सहसा उनके कानो मॆ किसी की आवाज आई संवरण तू यहाँ ध्यान मॆ मग्न हैं , तेरी राजधानी अग्नि मॆ जल रही हैं । संवरण नेत्र बंद किए ध्यान मुद्रा मॆ संवरण चुपचाप अपनी जगह बैठे रहे ! उनके मन मॆ मात्र भी दुख पैदा नही हुआ । उनके कानो मॆ पुन :आवाज सुनाई दी । संवरण तेरे कुटुम्ब के लोग अग्नि मॆ जलकर मर गये । संवरण हिमालय के समान दृढ़ होकर अपने स्थान पर जमे रहे । उनके कानो मॆ पुन :तीसरी बार कंठ स्वर सुनाई पड़ा - संवरण तेरी प्रजा अकाल की अग्नि मॆ जलकर भस्म हो रही हैं । तेरे नाम की थू थू हो रही हैं ! उतना सुनकर भी राजा संवरण दृढ़तापूर्वक तप मॆ लगे रहे । संवरण की दृढ़ता देख सूर्यनारायण प्रसन्न हुये और उन्होने प्रकट होकर कहाँ " संवरण मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ । बोलो तुम्हे क्या चाहिये । संवरण सूर्यदेव को प्रणाम करते हुये बोले हे भगवन मुझे आपकी पुत्री ताप्ती को छोड़कर और कूछ भी नही चाहिये । कृपा करके मुझे तपती को देकर मेरे जीवन को कृतार्थ कीजिये । सूर्यनारायण ने प्रसन्नता की मुद्रा मॆ कहाँ संवरण मैं सब जानता हूँ , ताप्ती भी तुमसे प्रेम करती हैं । हे संवरण आपके गुरु वशिष्ठ मेरे पास आये थे और उन्होने सम्पूर्ण स्थति मुझे बताई उन्होने ताप्ती की तुम्हारे लिये याचना की तब मैने उनके साथ ताप्ती को भेज दिया तुम्हारा कल्याण हो । कूछ समय बाद गुरु वशिष्ठ ताप्ती जी को साथ लेकर आये । गुरु वशिष्ठ जी के निर्देश पर राजा संवरण और ताप्ती जी ने पाणिग्रहण संस्कार किया तथा वशिष्ठ जी ने विवाह कर्म करवाया । इस तरह सूर्यदेव ने अपनी पुत्री राजा संवरण को शौप दी ।
इस तरह ताप्ती संवरण राजधानी पहुँचे । गुरु वशिष्ठ के निर्देश पर संवरण ने उत्तम नियम वाले ब्राम्हणों को बुलाया तथा राजा संवरण द्वारा विनय पूर्वक किये दान और सम्मान से पूजित संतुष्ट हुये ब्राम्हणों ने राजा को आशीर्वाद दिया ।
वहाँ रहकर ताप्ती सहित चिरकाल दिव्य भोगों को भोगा जब पुत्र हुआ तब पुत्र का मुख देख राजा संवरण श्राप मुक्त हुये और अपने पुत्र को ताप्ती जी को सौंप अपने स्थान को प्राप्त किये । ताप्ती जी उनके पुत्र का नाम कुरु रखा और कूछ समय बाद वे भी अपने स्थान चली गई ।
पार्ट 4
शिव जी बोले - हे पुत्र कार्तिकेय ! जब श्री ताप्ती जी के पुत्र राजा कुरु ने इस क्षेत्र की बार बार हल चलाकर जुताई कर रहे थे , तब इन्द्र ने उनसे जाकर इसका कारण पूछा। कुरु ने कहा कि जो भी व्यक्ति इस स्थान पर मारा जाए, वह पुण्य लोक में जाए, ऐसी मेरी इच्छा है। इन्द्र उनकी बात को हंसी में उड़ाते हुए स्वर्गलोक चले गए।
ऐसा अनेक बार हुआ। इन्द्र ने अन्य देवताओं को भी ये बात बताई। देवताओं ने इन्द्र से कहा कि यदि संभव हो तो कुरु को अपने पक्ष में कर लो। तब इन्द्र ने राजा कुरु के पास जाकर कहा कि कोई भी पशु, पक्षी या मनुष्य निराहार रहकर या युद्ध करके इस स्थान पर मारा जायेगा तो वह स्वर्ग का भागी होगा। इन्द्र की बात मान कर राजा कुरु ने हल चलाना बंद कर दिया । ये बात भीष्म, कृष्ण आदि सभी जानते थे, इसलिए महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र में लड़ा गया। कुरुवंश की बढायी इसलिये नही है कि उसने कुरुक्षेत्र राज्य कि सीमायें कैलाश से लेकर सागर तक फैला दी थी। राजा कुरु कि बढायी इसमॆ भी है कि उन्होने ठीक अपने राज दरबार कि मिट्टी मॆ प्रजातंत्र का पहला बीज डाला तथा जन्म और कर्म बिच मॆ एक रेखा डालकर ये कहाँ की जीवन का अर्थ जन्म नही है, कर्म है ।
हे पुत्र...जिस तरह राजा कुरु के शासन मॆ धर्मक्षेत्र कर्मक्षेत्र का जो अंकुर फूटा था कूछ समय बाद हस्तनापूर मॆ नरेश शांतनु के शासन काल मॆ मुर झा गया ।
गंगाजी को आखिर शांतनु के संग विवाह करके ताप्ती जी की पौत्र वधू बनना स्वीकार करना पढ़ा ।
जब गंगाजी पटरानी बनकर हस्तनापूर मॆ आई तो सारे राज्य मॆ दुखों का पहाड़ गिर गया । राजा शांतनु गंगाजी के प्रेम मॆ इतने लिप्त हो गये की उनके प्रजा की थोड़ी सी भी चिंता ना रही । आखिर वो दिन आ गया जब गंगा जी ने बालक को जन्म दिया ,गंगा जी ने उस बालक को जन्म लेते उसे नदी मॆ बहा दिया । राजा शांतनु वचन बद्ध होने के कारण देखते रहे की एक माँ ही अपने बालक को जन्म लेते ही नदी मॆ बहा रही है । कि प्रजा मॆ हा हा कार मच गया । गंगाजी जैसी दुर्भाग्य माता को सारी प्रजा कोसने लगी । हस्तनापूर कि सारी प्रजा नये युवराज कि प्रतीक्षा देख रही थी । प्रजा ने तो यहाँ तक कह दिया कि यह स्त्री ही नही है ,इसमे स्त्री के तीन गुणों मॆ से एक भी गुण नही है ,ना चेतना ,प्रेरणा और ना ही उत्साह है । महाराज ने कैसे स्त्री को हमारी पटरानी बना के रखा । इस तरह आठवें पुत्र के के वक्त राजा शांतनु ने अपने दिये वचन को तोड़ा और अपने सातो पुत्रों कि मृत्यु का कारण पूछा - तब गंगा जी बोली - हे महाराज मैंने आपके सातो पुत्रों कि हत्या नही की है , मैंने उन्हे गुरु वशिष्ठ के श्राप से मुक्त कराया है । मैं ब्रम्हपुत्री गंगा आपके साथ एक श्राप जी रही हूँ । तब राजा शांतनु बोले - कैसा श्राप देवी मुझे सह विस्तार बताये ।
गंगाजी बोली- महाराज आपके पितामह राजा गुरु की माता श्री ताप्ती जी ने मुझे उनके वंश वे वधू बनकर आने और वंशबेल ना बढ़ पाने का श्राप दिया था ।
ऐसा सुनकर महाराज शांतनु बोले - देवी क्या हमारे इस आठवें पुत्र से भी वंशबेल नही बढ़ पायेँगी ।
गंगाजी बोली -महाराज इस पुत्र का नाम मैं देवव्रत रख रही हूँ ,यह पुत्र भी आपकी वंश बेल नही बड़ा पायेंगा ।
गंगाजी और महाराज शांतनु के आठवें पुत्र को अखंड ब्रम्हचर्य की भीष्म प्रतिज्ञा लेना पड़ा । हे पुत्र ! शास्त्रों मॆ कहाँ गया है कि यदि भूलवश अनजाने से किसी मृत देहकी हट्टी ताप्ती जल मॆ प्रवाहित हो जाती है , तो उस मृत आत्मा को मुक्ति मिल जाती है । जिस प्रकार महाकाल के दर्शन करने से अकाल मौत नही होती है ,ठीक उसी प्रकार किसी भी जल मॆ प्रवाहित करने या उसका अनुसरण करके उसे तापी जल मॆ प्रवाहित किये जाने से अकाल मृत का शिकार बनी आत्मा को भी प्रेत योनी से मुक्ति मिल जाती है ।
इस तरह श्री ताप्ती का दिया सिध्द हुआ ।
पार्ट 5
शंकर भगवान बोले -हे पुत्र कार्तिकेय ! जिस जगह पर ताप्ती जी के पुत्र कुरु ने तप किया था वह आगे चलकर कुरुक्षेत्र / धर्म क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
कार्तिकेय जी बोले - यहाँ चंद्रवंश मॆ उत्पन्न प्रसिद्ध ताप्ती जि के पुत्र ने किसलिये तप किया था ?
तब भगवान शिव बोले - हे कार्तिकेय
जब राजा संवरण ने अपने पुत्र का मुख देख लिया और अपने स्थान को प्राप्त किये तथा ताप्ती जी भी अपने स्थान पर चली गई ।
राज्य सुख भोगने के बाद राजा कुरु चिंतित रहने लगे और विचार करने लगे ,यह अवतार निर्थक हैं कि उनकी कोई कीर्ति नही हैं । इस तरह चिंतित राजा कुरु को एकाएक नारद मुनि के दर्शन हुये । राजा कुरु ने भक्ति पूर्वक महात्मा नारद के चरण मॆ प्रणाम किया ।
तब देव ऋषि नारद बोले हे वीर तुन्हारे मन मॆ जो इच्छा हैं वह तुम्हे प्राप्त हो और तुम सदा प्रसन्न रहो ।
राजा कुरु ने नारद मुनि से पूछा कि मेरा मनोरथ सिध्द हो ऐसा उपाय बताईये ।
नारद मुनि बोले बोले हे पुत्र वारितापिनी तीर्थ के पश्चिम मॆ मनुष्य को हर सिध्दि देने शंकर जी का शिवलिंग हैं ,उस तीर्थ पर तू जा वहाँ जलपान करने से मोक्ष प्राप्त होता हैं । वहाँ जाकर तू तप कर ।
नारद मुनि से आज्ञा लेकर राजा कुरु यही पर आये और श्री ताप्ती जी को प्रसन्न करने के लिये महतप किया । राजा कुरु के महातप से प्रसन्न होकर श्री ताप्ती जी राजा कुरु के सामने प्रकट हुई । तब राजा कुरु ने ताप्ती जी को प्रणाम करते हुये उनकी स्तुति कि तब ताप्ती जी मधुर वचन मॆ बोली हे पुत्र ! जो तीनो लोको मॆ दुर्लभ हो वह वर आज मैं तुम्हे दूँगी । हे वीर पुत्र तू दृढ़ निश्चय वाला तथा पराक्रम वाला और सत्यव्रत वाला हैं । राजा कुरु बोले हे देवी आप मुझ पर प्रसन्न हुई हो तो तीनो लोकों मॆ चिरकाल तक मेरी कीर्ति बनी रही ॥ यही वरदान मुझे दो । श्री ताप्ती जी बोली हे पुत्र कुरु नाम से यह क्षेत्र प्रसिद्ध होंगा और मेरे प्रभाव से इस क्षेत्र मॆ प्राणी पाप से मुक्त होंगे ।
हे पुत्र पॄथ्वी पर जो पुरुष जो पुरुष कुरुक्षेत्र मॆ जाकर पाप रत होंगा तो मैं पुत्र कि तरह उसका उद्धार करूँगी ।
सुंदर कुरुक्षेत्र मॆ सूर्यग्रहण के समय स्नान करने से जो पुण्य मिलता हैं उससे करोडो गुणा अधिक पुण्य ताप्ती के कुरुक्षेत्र मॆ स्नान करने से मिलता हैं । बाद मॆ ताप्ती ने राजा कुरु को मनोरथ की सिद्धि दी । यहाँ के जल मॆ कुरुतीर्थे्श्वर नामक शिवलिंग हैं जिसका सात दिन रात सेवन करने से कौन स्वर्ग नही जायेंगा । इस कुरु तथा ताप्ती संगम का सेवन करने से क्षय रोगी कुष्ठ रोगी बहरे गूंगे आदि कृतार्थ होती हैं ।
इतना कहकर ताप्ती देवी अंतरध्यान हो गयी । राजा कुरु ने अपने राज दरबार की मिट्टी मॆ प्रजातंत्र का पहला बिच डाला और जन्म और कर्म के बिच एक रेखा डालकर ये कहाँ की जीवन का अर्थ जन्म नही कर्म हैं क्यूकी कुरुक्षेत्र वास्तव मॆ धर्मक्षेत्र हैं । आगे चलकर राजा कुरु का विवाह ने स्वर्ग की अप्सरा सुकेशी के साथ हुआ ॥
राजा कुरु सूर्यनारायण के अनन्य भक्त थे उनकी कृपा से कुरु ने कुरुक्षेत्र बसाया । माँ ताप्ती पूत्र राजा कुरु एक अत्यंत प्रतापी राजा हुये जो महभारत मॆ कौरव और पांडवों के पितामह हुये ।
पार्ट - 06
शिव जी बोले - हे पुत्र कार्तिकेय ! जब श्री ताप्ती जी के पुत्र राजा कुरु ने इस क्षेत्र की बार बार हल चलाकर जुताई कर रहे थे , तब इन्द्र ने उनसे जाकर इसका कारण पूछा। कुरु ने कहा कि जो भी व्यक्ति इस स्थान पर मारा जाए, वह पुण्य लोक में जाए, ऐसी मेरी इच्छा है। इन्द्र उनकी बात को हंसी में उड़ाते हुए स्वर्गलोक चले गए।
ऐसा अनेक बार हुआ। इन्द्र ने अन्य देवताओं को भी ये बात बताई। देवताओं ने इन्द्र से कहा कि यदि संभव हो तो कुरु को अपने पक्ष में कर लो। तब इन्द्र ने राजा कुरु के पास जाकर कहा कि कोई भी पशु, पक्षी या मनुष्य निराहार रहकर या युद्ध करके इस स्थान पर मारा जायेगा तो वह स्वर्ग का भागी होगा। इन्द्र की बात मान कर राजा कुरु ने हल चलाना बंद कर दिया । ये बात भीष्म, कृष्ण आदि सभी जानते थे, इसलिए महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र में लड़ा गया। कुरुवंश की बढायी इसलिये नही है कि उसने कुरुक्षेत्र राज्य कि सीमायें कैलाश से लेकर सागर तक फैला दी थी.राजा कुरु कि बढायी इसमॆ भी है कि उन्होने ठीक अपने राज दरबार कि मिट्टी मॆ प्रजातंत्र का पहला बीज डाला तथा जन्म और कर्म
बिच मॆ एक रेखा डालकर ये कहाँ की जीवन का अर्थ जन्म नही है, कर्म है ।
हे पुत्र...जिस तरह राजा कुरु के शासन मॆ धर्मक्षेत्र कर्मक्षेत्र का जो अंकुर फूटा था कूछ समय बाद हस्तनापूर मॆ नरेश शांतनु के शासन काल मॆ मुर झा गया ।
गंगाजी को आखिर शांतनु के संग विवाह करके ताप्ती जी की पौत्र वधू बनना स्वीकार करना पढ़ा ।
जब गंगाजी पटरानी बनकर हस्तनापूर मॆ आई तो सारे राज्य मॆ दुखों का पहाड़ गिर गया । राजा शांतनु गंगाजी के प्रेम मॆ इतने लिप्त हो गये की उनके प्रजा की थोड़ी सी भी चिंता ना रही । आखिर वो दिन आ गया जब गंगा जी ने बालक को जन्म दिया ,गंगा जी ने उस बालक को जन्म लेते उसे नदी मॆ बहा दिया । राजा शांतनु वचन बद्ध होने के कारण देखते रहे की एक माँ ही अपने बालक को जन्म लेते ही नदी मॆ बहा रही है ।
कि प्रजा मॆ हा हा कार मच गया । गंगाजी जैसी दुर्भाग्य माता को सारी प्रजा कोसने लगी । हस्तनापूर कि सारी प्रजा नये युवराज कि प्रतीक्षा देख रही थी । प्रजा ने तो यहाँ तक कह दिया कि यह स्त्री ही नही है ,इसमे स्त्री के तीन गुणों मॆ से एक भी गुण नही है ,ना चेतना ,प्रेरणा और ना ही उत्साह है । महाराज ने कैसे स्त्री को हमारी पटरानी बना के रखा ।
इस तरह आठवें पुत्र के के वक्त राजा शांतनु ने अपने दिये वचन को तोड़ा और अपने सातो पुत्रों कि मृत्यु का कारण पूछा :-
तब गंगा जी बोली - हे महाराज मैंने आपके सातो पुत्रों कि हत्या नही की है , मैंने उन्हे गुरु वशिष्ठ के श्राप से मुक्त कराया है । मैं ब्रम्हपुत्री गंगा आपके साथ एक श्राप जी रही हूँ ।
तब राजा शांतनु बोले -कैसा श्राप देवी मुझे सह विस्तार बताये ।
गंगाजी बोली- महाराज आपके पितामह राजा गुरु की माता श्री ताप्ती जी ने मुझे उनके वंश वे वधू बनकर आने और वंशबेल ना बढ़ पाने का श्राप दिया था ।
ऐसा सुनकर महाराज शांतनु बोले -देवी क्या हमारे इस आठवें पुत्र से भी वंशबेल नही बढ़ पायेँगी ।
गंगाजी बोली -महाराज इस पुत्र का नाम मैं देवव्रत रख रही हूँ ,यह पुत्र भी आपकी वंश बेल नही बड़ा पायेंगा ।
गंगाजी और महाराज शांतनु के आठवें पुत्र को अखंड ब्रम्हचर्य की भीष्म प्रतिज्ञा लेना पड़ा । हे पुत्र ! शास्त्रों मॆ कहाँ गया है कि यदि भूलवश अनजाने से किसी मृत देहकी हट्टी ताप्ती जल मॆ प्रवाहित हो जाती है , तो उस मृत आत्मा को मुक्ति मिल जाती है । जिस प्रकार महाकाल के दर्शन करने से अकाल मौत नही होती है ,ठीक उसी प्रकार किसी भी जल मॆ प्रवाहित करने या उसका अनुसरण करके उसे तापी जल मॆ प्रवाहित किये जाने से अकाल मृत का शिकार बनी आत्मा को भी प्रेत योनी से मुक्ति मिल जाती है ।
इस तरह श्री ताप्ती का दिया सिध्द हुआ ।
पार्ट - 07
शिव जी भोले - हे पुत्र ! भगवान श्री कृष्ण के स्वर्गलोक प्रस्थान करते ही महापराक्रमी पाँच पाण्डव अभिमन्मु पूत्र परीक्षित को राज्य देकर महाप्रयाण हेतू उत्तराखण्ड की ओर चले गये ,वहा जाकर पुण्यलोक को प्राप्त हुए । उसके बाद राजा परीक्षित की साँप के डंसने से मृत्यु हुई जिसका बदला लेने के लिये उनके पुत्र ने महाविनाशी सर्प यज्ञ किया था । श्री ताप्ती जी की कृपा से राजा जन्मेजय ने सर्प विनाश महायज्ञ से हुई आत्म ग्लानि से शांति पाई ।
कार्तिकेय जी बोले - हे प्रभु ! राजा परीक्षित को सर्प ने क्यों काँटा ? महाविनाशी सर्प यज्ञ किस प्रकार हुआ । मुझे सह विस्तार कहिये !
शिव जी बोले -हे पुत्र ! एक दिन राजा परीक्षित ने सुना
कि कलियुग उनके राज्य में घुस
आया है और अधिकार जमाने का
मौका ढूँढ़ रहा है। ये उसे अपने
राज्य से निकाल बाहर करने के
लिये ढूँढ़ने निकले। एक दिन इन्होंने
देखा कि एक गाय और एक बैल
अनाथ और कातर भाव से खड़े हैं और
एक शूद्र जिसका वेष, भूषण और
ठाट-बाट राजा के समान था,
डंडे से उनको मार रहा है। बैल के
केवल एक पैर था। पूछने पर परीक्षित
को बैल, गाय और राजवेषधारी
शूद्र तीनों ने अपना अपना परिचय
दिया। गाय पृथ्वी थी, बैल धर्म
ता और शूद्र कलिराज। धर्मरूपी
बैल की सत्य, तप और दयारूपी
तीन पैर कलियुग ने मारकर तोड़
डाले थे, केवल एक पैर दान के सहारे
वह भाग रहा था, उसको भी तोड़
डालने के लिये कलियुग बराबर
उसका पीछा कर रहा था। यह
वृत्तांत जानकर परीक्षित को
कलियुग पर बड़ा क्रोध हुआ और वे
उसको मार डालने को उद्यत हुए।
पीछे उसके गिड़गिड़ाने पर उन्हें
उसपर दया आ गई और उन्होंने उसके
रहने के लिये ये स्थान बता दिए—
जुआ, स्त्री, मद्य, हिंसा और
सोना । इन पाँच स्थानों को
छोड़कर अन्यत्र न रहने की कलि ने
प्रतिज्ञा की। राजा ने पाँच
स्थानों के साथ साथ ये पाँच
वस्तुएँ भी उसे दे डालीं—मिथ्या,
मद, काम, हिंसा और बैर। इस घटना
के कुछ समय बाद महाराज
परीक्षित एक दिन आखेट करने
निकले। कलियुग बराबर इस ताक में
था कि किसी प्रकार परीक्षित
का खटका मिटाकर अकंटक राज
करें। राजा के मुकुट में सोना था
ही, कलियुग उसमें घुस गया। राजा
ने एक हिरन के पीछे घोड़े को दौड़ाया बहुत दूर तक पीछा करने पर भी वह न
मिला। थकावट के कारण उन्हें
प्यास लग गई थी। एक वृद्ध मुनि
(शमीक) मार्ग में मिले। राजा ने
उनसे पूछा कि बताओ, हिरन
किधर गया है। मुनि मौनी थे,
इसलिये राजा की जिज्ञासा
का कुछ उत्तर न दे सके। थके और
प्यासे परीक्षित को मुनि के इस
व्यवहार से बड़ा क्रोध हुआ।
कलियुग सिर पर सवार था ही,
परिक्षित ने निश्चय कर लिया
कि मुनि ने घमंड के मारे हमारी
बात का जवाब नही दिया है और
इस अपराध का उन्हें कुछ दंड होना
चाहिए। पास ही एक मरा हुआ
साँप पड़ा था। राजा ने कमान
की नोक से उसे उठाकर मुनि के गले
में डाल दिया और अपनी राह
ली।
मुनि के श्रृंगी नाम का एक
महातेजत्वी पुत्र था। वह किसी
काम से बाहर गया था। लौटते
समय रास्ते में उसने सुना कि कोई
आदमी उसके पिता के गले में मृत सर्प
की माला पहना गया है।
कोपशील श्रृंगी ने पिता के इस
अपमान की बात सुनते ही हाथ में
जल लेकर शाप दिया कि जिस
पापत्मा ने मेरे पिता के गले में मृत
सर्प की माला पहनाया है, आज
से सात दिन के भीतर तक्षक नाम
का सर्प उसे डस ले। आश्रम में पहुँचकर
श्रृंगी ने पिता से अपमान
करनेवाले को उपर्युक्त उग्र शाप देने
की बात कही। ऋषि को पुत्र के
अविवेक पर दुःख हुआ और उन्होंने
एक शिष्य द्वारा परीक्षित को
शाप का समाचार कहला भेजा
जिसमें वे सतर्क रहें। परीक्षित ने
ऋषि के शाप को अटल समझकर
अपने पुत्र जनमेजय को राज पर
बिठा दिया और सब प्रकार मरने
के लिये तैयार होकर अनशन व्रत
करते हुए श्रीशुकदेव जी से श्रीमद्
भागवत की कथा सुनी।
राजा परीक्षित ने हर मुमकिन
कोशिश की कि उनकी मौत
सांप के डसने से न हो। उन्होंने सारे
उपाय किए ऐसी जगह पर घर
बनवाया जहां परिंदा तक पर न
मार सके। लेकिन ऋषि का शाप
झूठा नहीं हो सकता था। जब
चारों तरफ से राजा परीक्षित ने
अपने आपको सुरक्षित कर लिया
तो एक दिन एक ब्राह्मण उनसे
मिलने आए। उपहार के तौर पर
ब्राह्मण ने राजा को फूल दिए
और परीक्षित को डसने वला वो
काल सर्प ‘तक्षक’ उसी फूल में एक
छोटे कीड़े की शक्ल में बैठा था।
तक्षक सांपो का राजा था।
मौका मिलते ही उसने सर्प का
रुप धारण कर लिया और राज
परीक्षित को डस लिया।
राजा परीक्षित की मौत के
बाद राजा जनमेजय हस्तिनापुर
की गद्दी पर बैठे। जनमेजय पांडव
वंश के आखिरी राजा थे।
जनमेजय को जब अपने पिता की
मौत की वजह का पता चला तो
उसने धरती से सभी सांपों के
सर्वनाश करने का प्रण ले लिया
और इस प्रण को पूरा करने के लिए
उसने सर्पमेध यज्ञ का आयोजन
किया। इस यज्ञ के प्रभाव से
ब्रह्मांड के सारे सांप हवन कुंड में
आकर गिर रहे थे।
उन यज्ञों में
नागों को पटक दिया जाता था। एक
विशिष्ट मंत्र द्वारा नाग स्वयं यज्ञ के
पास पहुंच जाते थे। देशभर में नागदाह
नामक स्थानो पर यज्ञ चालु कर दिये ।
कोई-कोई एक कोस लम्बे तथा कोई चार
कोस लम्बे, कोई केवल गाय के कान जैसे
प्रमाण वाले सर्प बड़ी तेजी से अग्रिकुण्ड में
भस्म हो रहे थे। इस प्रकार लाखों, करोड़ों-
अरबों सर्प मंत्राकर्षण से विवश होकर नष्ट
हो गए। कुछ सर्पों की आकृति घोड़े की
सी, किसी की हाथी की सूंड की सी,
मतवाले हाथी जैसे विशाल नाग, भयंकर
विष वाले छो-बड़े अनेको सर्प ।
सर्पदाह के एक
घनघोर यज्ञ की अग्नि से एक कर्कोटक
नामक सर्प ने अपनी जान बचाने के लिए
उज्जैन में महाकाल राजा की शरण ले ली
थी जिसके चलते वह बच गया था।
लेकिन सांपों
का राजा तक्षक, जिसके काटने
से परीक्षित की मौत हुई थी, खुद
को बचाने के लिए सूर्य देव के रथ से
लिपट गया और उसका हवन कुंड में
गिरने का अर्थ था सूर्य के
अस्तित्व की समाप्ति जिसकी
वजह से सृष्टि की गति समाप्त
हो सकती थी।
सूर्यदेव और ब्रह्माण्ड की रक्षा
के लिए सभी देवता जनमेजय से इस
यज्ञ को रोकने का आग्रह करने लगे
लेकिन जनमेजय किसी भी रूप में
अपने पिता की हत्या का बदला
लेना चाहता था।
जनमेजय के
यज्ञ को रोकने के लिए
अस्तिका मुनि को हस्तक्षेप
करना पड़ा, जिनके पिता एक
ब्राह्मण और मां एक नाग कन्या
थी।
अस्तिका मुनि की बात
जनमेजय को माननी पड़ी और
सर्पमेध यज्ञ को समाप्त कर तक्षक
को मुक्त करना पड़ा।
उसके ही प्रयासों से वह महासर्प
विनाशी यज्ञ बंद हो गया
और वासुकि, तक्षक आदि नागों की
रक्षा हुई। दोषी-निर्दोष सभी सर्पों
की महान् हिंसा से राजा जन्मेजय के हृदय
में अत्यंत ग्लानि हुई। उसी कुण्ठा से
कुण्ठित राजर्षि जन्मेजय अधीरतापूर्वक कृष्ण द्वैपायन व्यास जी के समीप
गए और अपना दुख निवेदन किया। उनके दुख
निवारण को व्यास जी बोले- वत्स!
संसार में संपूर्ण पाप-ताप का निवारण
भगवती पुण्य सलिला ताप्ती की शरण ग्रहण करने से हो
जाता है; चाहे वह ताप किसी भी
निमित्त उत्पन्न हुआ हो।
आषाढ़ शुक्ल सप्तमी के दिन व्यास जी के बताये निर्देश पर मां ताप्ती के तट पर महा पुंजन का आयोजन किया । जिसमें
देवता, गन्धर्वगण, किन्नर समूह, नागगण,
सिद्धगण, चारणों के समूह और मनुष्यों के
झुण्ड सभी को भक्ति के भाव-प्रवाह में
निमग्र हो गये। आकाश में बादल भी
भावविभोर होकर दिव्य जल की धीमी-
धीमी फुहार छोड़ रहे थे, और भक्तों का
समूह गन्ध, अक्षत व धूप दीपमाला द्वारा
पूजन कर रहा था। सिद्ध चारण दिव्य
स्त्रोतों के द्वारा भगवती सूर्यपुत्री
तपती की स्तुति कर रहे थे। गन्धर्व गण अनेक
प्रकार के वाद्ययंत्रों को बजाकर ललित
कण्ठ से उनकी कीर्ति का गान कर रहे थे।
अप्सराएं नृत्य कर रही थीं।
तपती पूजन के बाद मां ताप्ती जी को जन्मेजय द्वारा सुहाग सामग्री भेट कर दुग्धाभिषेक किया गया ।
उपरांत एक वटवृक्ष के नीचे उच्च व खण्ड
पर काले हिरण की मृगछाला के आसन पर
हजारों मुनियों से घिरे श्री कृष्ण द्वैपायन
व्यास आनंद में विराज रह थे, तब परीक्षित
नंदन जन्मेजय ने प्रणाम करके पूछा- हे सर्वज्ञ
गुरुदेव! सम्पूर्ण पाप-ताप का हरण करने
वाली परम कृपामयी तापी मांई सम्पुर्ण महात्म बताईये ।
एक बार की बात हैं भगवान शिव पुत्र कार्तिकेय जी के मन में सूर्यपुत्री ताप्ती जी की महिमा जानने की ईच्छा व्यक्त हुई । तब वे पिता शिव शंकर जी के पास गये और बोले पिताजी क्या सूर्यपुत्री ताप्ती जी का महात्म नही हैं ? क्या श्री तप्तीजी नदियों मॆ प्राचीन नही हैं ?
तब शिवजी बोले - पुत्र सूर्यपुत्री ताप्ती जी कि बड़ी महिमा है, पुराने समय मॆ जो श्री नारद जी ने कहाँ था । वह मेरे द्वारा ही कहाँ हुआ हैं । मैंने ही उन्हे बताया था कि जब गंगा ,नर्मदा ,गोमती आदि नदियाँ नही थी तब से सूर्यपुत्री ताप्ती प्रकट हुई हैं । आगे भगवान शिव कहने लगे पुत्र श्री गंगाजी मॆ कई दिनो तक स्नान करने , नर्मदा जी के जल के दर्शन करने से और सरस्वती जी के संगम का जल पीने से जो पवित्रता होती हैं ,वही पवित्रता श्री ताप्ती के स्मरण मात्र से मनुष्य को होती हैं । यह ताप्ती आति प्राचीन हैं ।
इतना सुनकर कार्तिकेय जी पूछा - हे तात मैंने ताप्ती जी के दोनो किनारो आपके सुन्दर अर्चित लिंगो का
दर्शन किया है प्रिय अनुज गणेश ने भी मां
तापी महत्ता का गुणगान किया है ,तात आप
तापी जल क्यो धारण करते हो मुझे बताईये ।
तब भगवान शिव बोले- हे पुत्र कार्तिकेय जिस तरह भगवान सुर्यदेव अपनी इच्छा से गति करते है एवं सदैव
कर्मशील रहते है । उन्हे इस ब्रम्हाण्ड की आत्मा कहा जाता है उनके बिना सृष्ठी चारो अन्धकार ही
रहेंगा । उसी तरह पृथ्वी लोग पर मां तापी के बिना जीव-जीवन सम्भव नही था । मां ताप्ती
तीनो लोको के तापो का निवारण करती है ,वो ही सृष्टी की आदिगंगा है । मां तापी मोक्ष्यदायिनी है ,जिव और
जिवन का आधार है जो भी उनके शरण मे जाता
उसके सभी तापो को हर लेती है तापी जी ।
तब भगवान शिव आगे कहने लगे पुत्र मै तुम्हे ताप्ती महात्मा सुनाता हुँ जिसके ध्यान मात्र से मनुष्य भवपार हो जाता हैं । भगवान शिव बोले - हे पुत्र कार्तिकेय जब सूर्य नारायण का विवाह भगवान विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा से हुआ । विवाह के कुछ समय पश्चात उन्हें तीन संतानो के रूप में मनु, यम और यमुना की प्राप्ति हुई इस प्रकार कुछ समय तो संज्ञा ने सूर्य के साथ निर्वाह किया परंतु संज्ञा सूर्य के तेज को अधिक समय तक सहन नहीं कर पाईं उनके लिए सूर्य का तेज सहन कर पाना मुश्किल होता जा रहा था । इसी वजह से संज्ञा ने अपने पति की परिचर्चा
अपनी दासी छाया को पति सूर्य की सेवा में छोड़ कर ,वह एक घोडी का रुप धारण कर मन्दिर में तपस्या करने चली चली गईं। अपनी इच्छा से संसार को गति देने वाले हिरण्यगर्भ भगवान सुर्य भी अपने तेज से संसार को गति दे रहे थे उनके प्रचण्ड तेज के कारण सृष्टी पर महाप्रलय आया था । पृथ्वी पर गर्मी और तापमान इतना अत्यधिक बढ़ गया था ,जिससे जमीन उर्वरा शक्ति पुरी तरह
खत्म हो गई थी । पृथ्वी के हिम झिलाखण्ड पिघलकर
पीछे हट रहे थे ।अत्यधिक गर्मी से सबसे अधिक पृथ्वी
पर छाई प्राण वायु पर्तो पर पढ़ रहा था , जिससे सृष्टी के सभी जीव ब्रह्राजी मे विलिन होने लगे । ब्रम्ह्राजी ने पुन : सृष्टी रचना करने की कोशिश की लेकिन सुर्यदेव के
प्रचण्ड तेज से वे भी व्याकुल हो गये ।
अत : ब्रम्ह्राजी ने भगवान शिव और विष्णू
जी का ध्यान किया ।तब भगवान विष्णु ने पृथ्वी मां और
देवताओ से कहा कि आप चिंता ना कीजिये इस बार भगवान हिरण्य गर्भ सुर्यदेव की पुत्री ताप्ती जन्म
लेंगी जो सारे जगत के ताप हार कर जन कल्याण
करेंगी । इस प्रकार विष्णु के कहने पर सभी देवता गण एवं पृथ्वी मां भगवान सुर्यदेव के पास गये और उनसे प्रार्थना की इस महाप्रलय से सृष्टी को विनाश होने से बचाये ।अत:
भगवान सुर्यदेव ने अपनी पुत्री ताप्ती का ध्यान किया ।
सुर्यपुत्री ताप्ती ताप्ती उनके ताप से उत्पन्न होकर सारी दिशाओ एवं आकाश को अलौकिक करते हुए अपने पिता का सन्ताप दूर करते भूलोक पर प्रकट हुई ।इस प्रकार सृष्टी निर्माण के समय प्रथम नदी के रुप में ताप्ती जी का अवतरण हुआ। मां ताप्ती जी का जन्म आषाढ़ शुक्ल
सप्तमी को दोपहर में हुआ।सुर्यदेव ने अपने तेज
से ताप उत्पन्न करके ताप्ती जी को अवतरित किया था ,इसलिए सुर्यपुत्री का नाम तप्ती हुआ ।महाभारत ,भविष्यपुराण,स्कन्धपुराण
आदि अनेक पुराणो मे माँ तापी जी का
उल्लेख मिलता है ।
है ।
पार्ट 02
शिवजी बोले -पुत्र ताप्ती जी आदिगंगा हैं वो सृष्टि आरम्भ से इस धरा पर हैं ,सभी नदियाँ ताप्ती जी का सेवन करती हैं । कार्तिकेय बोले - सभी नदियाँ कैसे ताप्ती जी सेवन करती हैं , मुझे नदियों की इस कथा बताइये ।
भगवान शिव भोले - पूर्वकाल मॆ गंगाजी मेरे पास कैलाश आयी और मुझसे से बोली हे नाथ ! नारद वगैरह मुनियों को ताप्ती महात्म मिला था ,उसका प्रभाव है या नही ।
तब पुत्र मैने बताया था की - पूर्वकाल मॆ नारद मुनि ने बड़े कष्ट से ताप्ती महात्म प्राप्त किया था। तीनो लोको मॆ उसका प्रभाव कहने मॆ कौन समर्थ हैं ।
तब मैने ने कहाँ हे देवी गंगा आप तो ब्रम्हलोक मॆ ब्रम्हा जी के कमणडल मॆ रहती हो तुम्हे बड़ी तथा महापापनाशक श्री ताप्ती जी के बारे मॆ कैसे पता चला ।
गंगाजी बोली हे नाथ मै ब्रम्हलोक निवास करती हूँ और मैने ब्रम्हाजी के मुख से जो सुना और आश्चर्च देखा वह ध्यान से सुनिये..अत्यंत हर्ष के साथ हम सभी बड़ी नदियाँ ब्रम्हलोक गई थी ।
वहाँ ब्रम्हाजी ने हमारे सामने उपदेश दिया था कि जो पुरुष ताप्ती जी किनारे मृत्यु प्राप्त होगा और जो पुरुष ताप्ती के जल से पुष्ट होगा और ब्रम्हाजी ने कहाँ कि ताप्ती किनारे रहने वाले पुरुष यदि महापापी दुराचारी और निर्दयी हो तो भी स्वभाविक रीति से सतगति को प्राप्त होंगे ।
ऐसा ब्रम्हाजी के मुख से उपदेश सुनकर यमराज जी को बहूत दुख :हुआ हुआ और उन्होने विचार किया कि अब मै क्या करूँ !
किस प्रकार मै सभी नदियों को बुलाकर श्री ताप्ती से प्रार्थना कर सकूंगा कि हे देवी जो श्रद्धा विहीन पापी पुरुष भी यदि सेवन करे आपके जल का तो उसे शास्वत स्थान मत देना । यमराज ने प्रार्थना कि तब ताप्ती नर्मदा आदि नदियाँ दिव्य अलंकार वाले विमान मॆ बैठकर जगत को उजवल करने वाली नदियाँ यमपूरी मॆ आयी॥
इसके बाद मॆ विनय पूर्वक धर्मराज ने
ताप्तीजी का बड़ा महात्म देखकर सबसे पहले तप्तीजी को आसान प्रदान किया। ताप्तीजी का अधिक महात्म देखकर सब नदियाँ रुष्ट होकर लौटने लगी ,तो धर्मराज ने सबको प्रणाम कर कहा की नदियों यह तपती सूर्य की पुत्री हैं , सबसे प्रथम हैं , तुम इसलिये क्रोधित हो रही हो ? यदि तुम्हे मेरे वचनों पर विश्वास नही हो तो हो तो मार्कण्डेय मुनी से पूँछ लो ! वो हि आपकी समस्या का समाधान कर सकते है क्युकि वे सात कल्पो के बारे मे जानते है । सभी नदियाॅ लोमश मुनि के पास पहुची।
तब लोमश मुनि ने कहा की ताप्ती जी ही सबसे
प्राचिन नदी है , तो सभी जिज्ञासावश
पुछा की हमे तापी जन्म कैसे हुआ बताये ।
तब लौमश ऋषि ने कहाँ की आप ब्रम्हाजी के पास जाये सॄष्टि के रचयिता हि आपको बता पायेंगे । सभी नदियाँ फिर ब्रम्हलोक गयी और विचित्र आसनों पर बैठने के बाद उन सब ने नम्रता पूर्वक ब्रम्हाजी से पूछा की नदियों मॆ श्रेष्ठ कौन हैं ? हे नाथ तब ब्रम्हाजी ने कहाँ की सूर्यनारायण के शरीर से निकली ताप्ती प्रथम हैं जो की इक्कीस कल्पो का लगातार मुझे स्मरण हैं ।
इस प्रकार कहने पर हम सभी नदियों ने गर्व छोड़कर
अपनी शंका के बारे मॆ पूछा कि किस तरह सूर्यदेव के शरीर से ताप्ती उत्पन हुयी ।
तब हमे ताप्ती जन्म के बारे मॆ पता चला । हे गिरजापति महादेव अब कृपा करके मुझे ताप्ती महात्म जानने का रास्ता बताये । तब महादेव बोले , श्री यमुना जी ताप्ती जी की बहन हैं , वह हि बता सकती हैं ताप्ती महात्म और बहन होने के कारण उस पर क्रोध नही करेंगी । बाद मॆ उतावली होकर गंगाजी यमुना जी से मिलने गयी । इस प्रकार यमुना जी और गंगाजी मॆ मित्रता हुयी ।
कूछ समय बाद देवी गंगा ने यमुना जी को महादेव जी के पास आने का निमंत्रण दिया जिससे ताप्ती महात्म जानने का कार्य पूर्ण हो सके । देवाधि देव महादेव ने आदर पूर्वक कहाँ , हे नदियों मॆ श्रेष्ट यमुना ! तुम शीघ्र ताप्ती महात्म सूनावों । तब यमुना बोली हे नाथ ताप्ती जी मेरे बहन होते हुये भी क्रोधित हुयी तो मेरी रक्षा कौन करेंगा । तब महादेव जी ने बोले हे देवी यमुना - मै हुंकार मार कर तुम्हे बचा लूंगा , ताप्ती के श्राप के भय के कारण इस कार्य को तुम्हारे सिवाय कोई करने मॆ समर्थ नही हैं । यमुना जी ने काली गाय का रुप धारण किया और ताप्ती पूर्णा संगम पर ताप्ती महात्म जानने के लिये प्रवेश किया तब
यमुना जी का दुष्कर्म जानकर सूर्यपुत्री ताप्ती तीव्र वेग प्रवाह से यमुना को व्याकुल कर दिया तब यमुना जी डुबकी खाती हुयी रुदन करती हुई दिखाई दी । तब स्वयं मैं भी आश्चर्यचकित हुआ और सफेद रंग कि गाय (यमुना) को उस स्थान का ध्यान किया तब वह गाय ताप्ती जी के प्रभाव से सफेद रंग कि हो गई । ऐसा ध्यान से आभास हुआ , तब मैने हुंकार करके उस गाय कि रक्षा की । यमुना जी बार बार ताप्ती जी का ध्यान करते हुये भी ताप्ती महात्म ना पा सकी । कलांतर मॆ इस स्थान का नाम भूसावन पड़ा । ये तीर्थ प्रसिद्ध तपती पूर्णा संगम के नाम से विख्यात हुआ ।
इस तीर्थ का सेवन करने से देवी यमुना और शिव जी क्रपा बनी रहती हैं l भगवान शिव बोले - हे पुत्र
जब राजा सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों के मोक्ष के लिये गंगाजी को धरती पर लाने के लिये हजारो वर्ष तक तप किया किंतु गंगाजी धरती पर ना ला सके , और तप करते करते उनकी मृत्यु हो गयीं ।
राजा सगर की मृत्यु की सूचना पाकर उनके पुत्र अंशुमान को बड़ा दुख हुआ और अंशुमान ने संकल्प लिया अब मै इस अधूरे कार्य को पूरा करूँगा तथा परंतु कठोर तप करने के बाद भी गंगाजी धरती पर नही आयी । इस तरह राजा सगर की दो पीढ़ीया समाप्त हो गयीं ।
गंगा जी को धरती पर लाने भागीरथ ने हजारों वर्ष घोर तपस्या की थी. उसके फलस्वरूप गंगा ने
ब्रम्ह कमण्डल (ब्रम्हलोक से) धरती पर भागीरथ के पूर्वजों का उद्धार करने आने का प्रयत्न तो किया परंतु
वसुन्धरा पर उस सदी में मात्र ताप्ती नदी की ही सर्वत्र महिमा फैली हुई थी । ताप्ती नदी का महत्व समझकर
श्री गंगा पृथ्वी लोक पर आने में संकुचित होने लगी, तदोउपरांत भगवान विष्णु स्वयं ब्रम्हलोक मे आये और माॅ गंगा जी से कहने लगे ,हे देवी तपस्वी इंसान को कम-कम एक ही जन्म में वरदान दे देना चाहिये , परन्तु राजा सगर की दो पीढ़ीयाॅ समाप्त हो गयी है, और तीसरी पीढ़ी
भगीरथ के अनेक वर्ष बीत चुके है । हे देवी कपिल मुनि आपको बुलाना चाहते है तो आपको जाना चाहिये ।
जब कपिल मुनि जैसे तपस्वी नित तुम्हारे जल मे स्नान करगें तो तुम्हारे पाप नित धुलते रहेंगे।अत : हे देवी आप मुत्यु लोक पर जाने की कृपा करे ।
गंगाजी ने भगवान विष्णु जी की बातो का उत्तर देते हुए
कहा कि भगवन ताप्तीजी मुझसे पहले धरातल पर
उपस्थित है और ताप्तीजी के तेज के सामने मेरा
प्रभाव कम हो जायेंगा । इस पर भगवान विष्णु ने कहा कि पृथ्वी लोक धरातल पर जितने भी ताप्ती पुराण है , उन्हे मृत्यु लोग से बुलाकर स्वर्ग लोक तुम्हारे सामने सामने
रख देते है । इस कार्य से ताप्ती जी का प्रभाव तो कम नही
होंगा। किन्तु उसके महत्व को जानेंगे ही नही तो मानेंगे
कैसे । अत: स्वमेव ही उनका ध्यान व मान कम हो जायेंगा । कपिल मुनि की कृपा से तुम्हारा मान बढ़ते
जायेंगा । इस शर्त पर गंगा जी पृथ्वी पर जाने को तैयार हुई । तब भगवान विष्णु ने नारद जी और गंधर्व गण की को पृथ्वी लोक पर ताप्ती जी का अदभूत महात्म चुराने भेजा । तब नारद मुनि तथा गंधर्वगणों की टोली सहित सब लोग श्री ताप्ती जी के तट पर आये और संगीत के साथ लम्बे अंतराल तक उनकी स्तुति की । उससे प्रसन्न होकर सूर्यपुत्री ताप्ती ने नारद मुनि और गंधर्वगणों की टोली को
दर्शन दिये और कहाँ आप सब किस लिये प्रार्थना कर रहे हो ! आपको तो कूछ भी असाध्य नही हैं ।
मूझे बहुत आश्चर्य हो रहा हैं । हे देव ऋषि वेद गायन मॆ तत्पर बड़े मुनि आप मेरे पूज्य हैं ।
यदि आप मेरे प्राण भी माँगेगे वह भी दे दूँगी । तब नारद मुनी बोले हे देवी ताप्ती जो तुम्हे प्रिय हैं ,वह आप मुझे नही दे सकती । जो आपको प्राणों से अधिक प्रिय हैं , वही माँगता हूँ । हे देवी सूर्यपुत्री यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं ,तो तुम्हारा महात्म मुझे दे दीजिये तो आपकी कृपा होंगी ।
नारद जी के वजन सुनकर श्री ताप्ती जी बोली -हे नारद जी यह महात्म दुर्लभ हैं फ़िर भी मैं तुम्हे दूँगी । नारद जी ने कपट मन से माँगा फिर भी श्री ताप्ती जी ने अपना महात्म दे दिया ,तब नारद मुनि और गंधर्वगणों की टोली सभी ताप्ती महात्म लेकर स्वर्ग गये और देवी गंगा जी के सामने पॄथ्वी लोक के सभी ताप्ती महात्म रख दिये । तब ब्रम्हपुत्री गंगा जी पॄथ्वी लोक पर आयी और राजा भगीरथ के सौ हजार पुत्रों का उद्धार हुआ । बाद मॆ श्री सूर्यपुत्री ताप्ती जी को ज्ञात हुआ की उनका महात्म हरण गया तो श्री ताप्ती जी को क्रोध हुआ जिसके कारण ऋषि नारद को तापी पुराण चुराने की हत्या का पाप लगा और निस्तेज कुष्ठ रोग मुँह वाले हुये साथ हि सब धर्मों से बहिस्कृत हुये । श्री ताप्ती जी क्रोध मॆ अपने पिता सूर्यदेव से भी तेज हो गयी और देवऋषि नारद को कुष्ठ रोग और गंगा जी को अपने हि कुलवंश मॆ वधू बन कर आने तथा उसकी वंश बेल ना बढ़ पाने का श्राप दे गयीं । ताप्ती जी के क्रोध से देवी -देवता दानव और गंधर्व सभी डर गये ।
कही ऐसा ना हो कि उसकी क्रोधाग्नि मॆ एक बार फिर पॄथ्वी जलकर राख ना हो जाये इसलिये माँ पॄथ्वी अपना वजूद बचाने के लिये श्री ताप्ती जी के समक्ष खड़ी होकर प्रार्थना करने लगी और कहने लगी हे देवी आपने हि मुझे सूर्यदेव के तेज से बचाया जिसके वजह से जल और जीवन सम्भव हुआ । आप हि क्रोधग्नि मॆ दहक उठेंगी तो मेरा तो वजूद हि और जल जीवन दोनो समाप्त हो जायेंगा । हे माँ ताप हारिनि मेरी कोख मॆ पलने वाले जीव -जन्तु आपके भाई मनु कि संतान का क्या होंगा । माँ पॄथ्वी कि प्रार्थना सुनकर सूर्यपुत्री ताप्तीजी ने अपने क्रोध को शांत किया ।
भगवान शिव कहने लगे हे पुत्र कार्तिकेय जब नारद मुनि कुष्ठ रोग मुख वाले ब्रम्हाजी के पास गये उस समय नारद मुनि को आते देख द्वार मॆ पर खड़े वायु देव ने आश्चर्यचकित हो तुरन्त ब्रम्हाजी के पास गये और बोले हे पितामह मुनि श्रेष्ट नारद कुष्ठ रोग वाले ब्रम्हलोक आ रहे हैं ।
तभी ब्रम्हदेव ने घ्यान किया और बोले श्री ताप्ती जी का महात्म हरण करने कि हत्या लगी हैं । मैं ऐसे अपवाद वाले पुत्र का मुख नही देख सकता हूँ ।मैं समाधि मॆ जा रहा हूँ ,तुम नारद मुनि से कहना कि इस समय ब्रम्हपिता के तुमसे मिलने का समय नही हैं । ऐसा कहकर ब्रम्हाजी बोले मेरी बनाई कृति का का नाश करने के लिये मुझसे पूछे बिना नारद ने जो किया और पाया हैं वह कोप से मनुष्य योनि पायेंगे । इस प्रकार ब्रम्हाजी समाधि मॆ बैठ गये ।
जब नारद मुनि आ गये ,तो वायुदेव ने नारद मुनि से कहाँ कि अभी ब्रम्हदेव के पास समय नही हैं । ऐसा सुनकर नारद मुनि ने ब्रम्हाजी असमय समाधि जाने जाने का विचार किया । नारद मुनि वहाँ से लौटकर मेरे पास आये पुत्र कार्तिकेय ! तुम्हारी माता पार्वती और मेरी स्तुति कि
और कहने लगे हे कैलाशनाथ मैं दुष्ट भावना से हूँ फिर भी आपकी शरण मॆ आया हूँ । हे तीनो लोकों से स्वामी
आप अंतर्यामी हो मुझ पर कृपा कर मुक्ति का कोई मार्ग बताये । तब मैने ध्यान द्रष्टि से सबकुछ लिया और मीठे वचनों मॆ कहाँ नारद तुम ताप्ती जी का पुराण हर कर लाये हो इसलिये तुम्हे कुष्ठ रोग हत्या लगी हैं । यह किसी भी तीर्थ मॆ तप्तीजी के प्रभाव के बिना नही जायेंगी । हे नारद मैं ताप्ती जी के तेज और वेग को जानता हूँ ।
उसका कहाँ कल भविष्य को तय करेंगा । मैं स्वयं भी ताप्ती के जल का सेवन करत हूँ । अत :आप गंगाजी के साथ ताप्ती जी कि शरण मॆ जायिये वह शरणागत पर दया करने वाली हैं । वह तुम पर जरूर प्रसन्न होंगी ।
इसके बाद नारद मुनि श्री ताप्ती उदगम मुलतापी आये और गंगाजी का स्मरण किया । नारद मुनि ने 12 वर्ष तक माँ ताप्ती जी का सेवन किया और कठोर तप किया । जिसके बाद माँ सूर्यपुत्री जी जी प्रसन्न हुई ।
माँ ताप्ती कि कृपा से कोप जल गया तभी आकाशवाणी हुई की हे नारद मुनि आप पाप मुक्त हो गये हो ।
इस स्थान पर आषाढ़ सप्तमी के दिन स्वयं देवी गंगा ताप्ती जी का सेवन करने आती हैं ।
हे पुत्र कार्तिकेय।
पार्ट 03
माँ सूर्यपुत्री ताप्ती जी की जन्म कथा सुनकर
कार्तिकेय जी बोले - हे पिताश्री किस प्रकार देवी ताप्ती का विवाह हुआ और किसके साथ हुआ कृपा कर बताईये ।
तब भगवान शिव बोले - संवरण राजा सोमवंश मॆ प्रसिद्ध थे । अगस्त मुनि के श्राप से वरूण देवता मनुष्य योनि मॆ संवरण नाम से आये थे । इसी दौरान जलचरों के स्वामी वरुण देवता के साथ उनका विवाह हुआ ।
शिव आगे कहने लगे - हे पुत्र कार्तिकेय जब देवताओ और दानवो के बिच क्षीर सागर मॆ समुद्र मंथन चल रहा था तब उस मंथन से मनोहर चौदह रत्न निकले थे ।
उन चौदह रत्नों मॆ मदिरा निकली तो सब देवताओं ने वरुण देव को दे दी । इन्द्र सभा से निकलकर वरुण देव लंकापुरी के सुंदर द्वार पर आये और अगस्त मुनि के आश्रम को देखा और आनंदित होकर मदिरा पीने के लिये वहाँ गये । अगस्त मुनि के आसन पर बैठकर वरुण देव ने मधुभाव से मन्दिरा पान किया , उसी समय गंगाजी मॆ स्नान कर अगस्त मुनि वहाँ आ लगे , जलचरों के स्वामी वरुण देव और मदिरा की बूँदें पड़ी देख -अगस्त मुनि क्रोधित हुये और कहने लगे तूने मेरे आश्रम मॆ अनुचित कार्य किया हैं इसलिए मैं तुम्हे श्राप देता हूँ , तू पॄथ्वी पर मनुष्य जन्म पायेंगा ।
तब वरूण देव बोले - हे तपस्वी मेरी रक्षा करो मैने अनजाने मॆ यह दुष्ट कार्य किया हैं ,अत : दयालु मुनि कृपा करे ।
इस पर महान अगस्त मुनि बोले हे जलचरों के स्वामी वरुण देव ! पॄथ्वी पर तू अपने पुत्र का मुख देखेंगा उसके बाद तू पुन : अपना स्थान प्राप्त कर लेंगा ।
इसके बाद वह वरूण देव ब्रम्ह के प्रभाव से पॄथ्वी पर जन्मे क्यूकी मुनि द्वारा दिये गये श्राप को भला कौन बदल सकता था । चंद्रवंश मॆ अजमीढ नामक राजा प्रसिद्ध थे उसका वह वरूण देव पुत्र हुआ ।
वरूण देव के आगमन से राजा पौरव को यश कीर्ति बढ़ने के साथ धर्म की रक्षा होने लगी । ज्ञानी पुरुषों मॆ श्रेष्ट उतम गर्ग मुनि ने ज्ञान द्रष्टि से उस बालक को देखकर कहाँ की यह तो वरूण देव हैं ऐसा जानकर उनका नाम संवरण रखा । गुरु वशिष्ठ से वेदों की शिक्षा प्राप्त कर जब वह सोलह वर्ष का हुआ तब पिता का राज्य प्राप्त कर राजा बनकर प्रजा पालन करने लगा ।
एक दिन की बात हैं जब राजा संवरण वन मॆ आखेट के लिये गये थे । तब राजा संवरण ने देखा की कमलपुष्प जैसे नेत्र वाली चंद्र बिंब जैसे मुख वाली शंक के समान गर्दन वाली तथा यौवन से झुकी हुई दो सखिया सुमेरू पर्वत को सुशोभित करती हुई आकाश मार्ग से पॄथ्वी लोक पर उतरी । अत्यंत सुंदर रुपवति विमला और ताप्ती को देख काम से घायल होकर उस ताप्ती पर मोहित हो गये संवरण !
तब विश्वसुंदरी ताप्ती से राजा संवरण बोले मैं महाराज पौरव का पुत्र हूँ ,मुझे अब तक किसी नारी ने आकृष्ट नही किया । हे सुंदरी तुम कौन हो ! तुम देवी हो ,गंधर्व हो या किन्नर हो ! तुम्हे देखकर मेरा चित्त चंचल हो उठा हैं ।मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ । ताप्ती जी ने संवरण की बातो का कूछ भी जवाब दिये बिना कूछ देर तक संवरण को देखती रही और अदृश्य हो गई । ताप्ती जी के अदृश्य हो जाने पर संवरण अत्यधिक व्याकुल हो गये और कहने लगे सुंदरी तुम कहाँ चली गई ? तुम्हारे बिना मै जीवित नही रह सकुंगा । तुम्हारे सौंदर्य ने मेरा मन चुरा लिया हैं । तुम प्रकट होकर मूझे बताओ की तुम कौन हो और मै तुम्हे कैसे पा सकुंगा। इतना कहकर राजा संवरण मूर्छित हो गिर पड़े । ऐसा सुनकर ताप्ती जी प्रकट हुई और संवरण की ओर देखते हुये बोली हे राजन ! मैं स्वयं आप पर मोहित हूँ ,किंतु मैं अपने पिता के आज्ञा के वश मॆ हूँ । मैं सूर्य की छोटी पुत्री हूँ और मेरा नाम ताप्ती हैं । जब तक मेरे पिता आज्ञा नही देंगे तब तक मैं आपसे विवाह नही कर सकती । यदि आपको मुझे पाना हैं तो मेरे पिता को प्रसन्न करना होंगा । ताप्ती जी अपने कथन समाप्त करते हुये अदृश्य हो गई । संवरण ताप्ती जी को पुकारते - पुकारते धरती पर गिरकर बेहोश हो गये । जब उनकी चेतना वापस आई तो उन्हे ताप्ती जी स्मरण हो आई । सूर्यदेव को प्रसन्न करने हेतु परीक्षा संवरण की रगों मॆ विघुत तरंगे दौड़ उठी । अत : ताप्ती जी को पाने के लिये राजा संवरण ने कठोर तप करना आरम्भ किया अंत मॆ सूर्यदेव ने संवरण की भक्ति से प्रसन्न होकर राजा संवरण की परीक्षा लेने का विचार उत्पन किया । रात्रि के समय सन्नाटा छाया हुआ । राजा संवरण सूर्यदेव की तपस्या में लीन थे । सहसा उनके कानो मॆ किसी की आवाज आई संवरण तू यहाँ ध्यान मॆ मग्न हैं , तेरी राजधानी अग्नि मॆ जल रही हैं । संवरण नेत्र बंद किए ध्यान मुद्रा मॆ संवरण चुपचाप अपनी जगह बैठे रहे ! उनके मन मॆ मात्र भी दुख पैदा नही हुआ । उनके कानो मॆ पुन :आवाज सुनाई दी । संवरण तेरे कुटुम्ब के लोग अग्नि मॆ जलकर मर गये । संवरण हिमालय के समान दृढ़ होकर अपने स्थान पर जमे रहे । उनके कानो मॆ पुन :तीसरी बार कंठ स्वर सुनाई पड़ा - संवरण तेरी प्रजा अकाल की अग्नि मॆ जलकर भस्म हो रही हैं । तेरे नाम की थू थू हो रही हैं ! उतना सुनकर भी राजा संवरण दृढ़तापूर्वक तप मॆ लगे रहे । संवरण की दृढ़ता देख सूर्यनारायण प्रसन्न हुये और उन्होने प्रकट होकर कहाँ " संवरण मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ । बोलो तुम्हे क्या चाहिये । संवरण सूर्यदेव को प्रणाम करते हुये बोले हे भगवन मुझे आपकी पुत्री ताप्ती को छोड़कर और कूछ भी नही चाहिये । कृपा करके मुझे तपती को देकर मेरे जीवन को कृतार्थ कीजिये । सूर्यनारायण ने प्रसन्नता की मुद्रा मॆ कहाँ संवरण मैं सब जानता हूँ , ताप्ती भी तुमसे प्रेम करती हैं । हे संवरण आपके गुरु वशिष्ठ मेरे पास आये थे और उन्होने सम्पूर्ण स्थति मुझे बताई उन्होने ताप्ती की तुम्हारे लिये याचना की तब मैने उनके साथ ताप्ती को भेज दिया तुम्हारा कल्याण हो । कूछ समय बाद गुरु वशिष्ठ ताप्ती जी को साथ लेकर आये । गुरु वशिष्ठ जी के निर्देश पर राजा संवरण और ताप्ती जी ने पाणिग्रहण संस्कार किया तथा वशिष्ठ जी ने विवाह कर्म करवाया । इस तरह सूर्यदेव ने अपनी पुत्री राजा संवरण को शौप दी ।
इस तरह ताप्ती संवरण राजधानी पहुँचे । गुरु वशिष्ठ के निर्देश पर संवरण ने उत्तम नियम वाले ब्राम्हणों को बुलाया तथा राजा संवरण द्वारा विनय पूर्वक किये दान और सम्मान से पूजित संतुष्ट हुये ब्राम्हणों ने राजा को आशीर्वाद दिया ।
वहाँ रहकर ताप्ती सहित चिरकाल दिव्य भोगों को भोगा जब पुत्र हुआ तब पुत्र का मुख देख राजा संवरण श्राप मुक्त हुये और अपने पुत्र को ताप्ती जी को सौंप अपने स्थान को प्राप्त किये । ताप्ती जी उनके पुत्र का नाम कुरु रखा और कूछ समय बाद वे भी अपने स्थान चली गई ।
पार्ट 4
शिव जी बोले - हे पुत्र कार्तिकेय ! जब श्री ताप्ती जी के पुत्र राजा कुरु ने इस क्षेत्र की बार बार हल चलाकर जुताई कर रहे थे , तब इन्द्र ने उनसे जाकर इसका कारण पूछा। कुरु ने कहा कि जो भी व्यक्ति इस स्थान पर मारा जाए, वह पुण्य लोक में जाए, ऐसी मेरी इच्छा है। इन्द्र उनकी बात को हंसी में उड़ाते हुए स्वर्गलोक चले गए।
ऐसा अनेक बार हुआ। इन्द्र ने अन्य देवताओं को भी ये बात बताई। देवताओं ने इन्द्र से कहा कि यदि संभव हो तो कुरु को अपने पक्ष में कर लो। तब इन्द्र ने राजा कुरु के पास जाकर कहा कि कोई भी पशु, पक्षी या मनुष्य निराहार रहकर या युद्ध करके इस स्थान पर मारा जायेगा तो वह स्वर्ग का भागी होगा। इन्द्र की बात मान कर राजा कुरु ने हल चलाना बंद कर दिया । ये बात भीष्म, कृष्ण आदि सभी जानते थे, इसलिए महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र में लड़ा गया। कुरुवंश की बढायी इसलिये नही है कि उसने कुरुक्षेत्र राज्य कि सीमायें कैलाश से लेकर सागर तक फैला दी थी। राजा कुरु कि बढायी इसमॆ भी है कि उन्होने ठीक अपने राज दरबार कि मिट्टी मॆ प्रजातंत्र का पहला बीज डाला तथा जन्म और कर्म बिच मॆ एक रेखा डालकर ये कहाँ की जीवन का अर्थ जन्म नही है, कर्म है ।
हे पुत्र...जिस तरह राजा कुरु के शासन मॆ धर्मक्षेत्र कर्मक्षेत्र का जो अंकुर फूटा था कूछ समय बाद हस्तनापूर मॆ नरेश शांतनु के शासन काल मॆ मुर झा गया ।
गंगाजी को आखिर शांतनु के संग विवाह करके ताप्ती जी की पौत्र वधू बनना स्वीकार करना पढ़ा ।
जब गंगाजी पटरानी बनकर हस्तनापूर मॆ आई तो सारे राज्य मॆ दुखों का पहाड़ गिर गया । राजा शांतनु गंगाजी के प्रेम मॆ इतने लिप्त हो गये की उनके प्रजा की थोड़ी सी भी चिंता ना रही । आखिर वो दिन आ गया जब गंगा जी ने बालक को जन्म दिया ,गंगा जी ने उस बालक को जन्म लेते उसे नदी मॆ बहा दिया । राजा शांतनु वचन बद्ध होने के कारण देखते रहे की एक माँ ही अपने बालक को जन्म लेते ही नदी मॆ बहा रही है । कि प्रजा मॆ हा हा कार मच गया । गंगाजी जैसी दुर्भाग्य माता को सारी प्रजा कोसने लगी । हस्तनापूर कि सारी प्रजा नये युवराज कि प्रतीक्षा देख रही थी । प्रजा ने तो यहाँ तक कह दिया कि यह स्त्री ही नही है ,इसमे स्त्री के तीन गुणों मॆ से एक भी गुण नही है ,ना चेतना ,प्रेरणा और ना ही उत्साह है । महाराज ने कैसे स्त्री को हमारी पटरानी बना के रखा । इस तरह आठवें पुत्र के के वक्त राजा शांतनु ने अपने दिये वचन को तोड़ा और अपने सातो पुत्रों कि मृत्यु का कारण पूछा - तब गंगा जी बोली - हे महाराज मैंने आपके सातो पुत्रों कि हत्या नही की है , मैंने उन्हे गुरु वशिष्ठ के श्राप से मुक्त कराया है । मैं ब्रम्हपुत्री गंगा आपके साथ एक श्राप जी रही हूँ । तब राजा शांतनु बोले - कैसा श्राप देवी मुझे सह विस्तार बताये ।
गंगाजी बोली- महाराज आपके पितामह राजा गुरु की माता श्री ताप्ती जी ने मुझे उनके वंश वे वधू बनकर आने और वंशबेल ना बढ़ पाने का श्राप दिया था ।
ऐसा सुनकर महाराज शांतनु बोले - देवी क्या हमारे इस आठवें पुत्र से भी वंशबेल नही बढ़ पायेँगी ।
गंगाजी बोली -महाराज इस पुत्र का नाम मैं देवव्रत रख रही हूँ ,यह पुत्र भी आपकी वंश बेल नही बड़ा पायेंगा ।
गंगाजी और महाराज शांतनु के आठवें पुत्र को अखंड ब्रम्हचर्य की भीष्म प्रतिज्ञा लेना पड़ा । हे पुत्र ! शास्त्रों मॆ कहाँ गया है कि यदि भूलवश अनजाने से किसी मृत देहकी हट्टी ताप्ती जल मॆ प्रवाहित हो जाती है , तो उस मृत आत्मा को मुक्ति मिल जाती है । जिस प्रकार महाकाल के दर्शन करने से अकाल मौत नही होती है ,ठीक उसी प्रकार किसी भी जल मॆ प्रवाहित करने या उसका अनुसरण करके उसे तापी जल मॆ प्रवाहित किये जाने से अकाल मृत का शिकार बनी आत्मा को भी प्रेत योनी से मुक्ति मिल जाती है ।
इस तरह श्री ताप्ती का दिया सिध्द हुआ ।
पार्ट 5
शंकर भगवान बोले -हे पुत्र कार्तिकेय ! जिस जगह पर ताप्ती जी के पुत्र कुरु ने तप किया था वह आगे चलकर कुरुक्षेत्र / धर्म क्षेत्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।
कार्तिकेय जी बोले - यहाँ चंद्रवंश मॆ उत्पन्न प्रसिद्ध ताप्ती जि के पुत्र ने किसलिये तप किया था ?
तब भगवान शिव बोले - हे कार्तिकेय
जब राजा संवरण ने अपने पुत्र का मुख देख लिया और अपने स्थान को प्राप्त किये तथा ताप्ती जी भी अपने स्थान पर चली गई ।
राज्य सुख भोगने के बाद राजा कुरु चिंतित रहने लगे और विचार करने लगे ,यह अवतार निर्थक हैं कि उनकी कोई कीर्ति नही हैं । इस तरह चिंतित राजा कुरु को एकाएक नारद मुनि के दर्शन हुये । राजा कुरु ने भक्ति पूर्वक महात्मा नारद के चरण मॆ प्रणाम किया ।
तब देव ऋषि नारद बोले हे वीर तुन्हारे मन मॆ जो इच्छा हैं वह तुम्हे प्राप्त हो और तुम सदा प्रसन्न रहो ।
राजा कुरु ने नारद मुनि से पूछा कि मेरा मनोरथ सिध्द हो ऐसा उपाय बताईये ।
नारद मुनि बोले बोले हे पुत्र वारितापिनी तीर्थ के पश्चिम मॆ मनुष्य को हर सिध्दि देने शंकर जी का शिवलिंग हैं ,उस तीर्थ पर तू जा वहाँ जलपान करने से मोक्ष प्राप्त होता हैं । वहाँ जाकर तू तप कर ।
नारद मुनि से आज्ञा लेकर राजा कुरु यही पर आये और श्री ताप्ती जी को प्रसन्न करने के लिये महतप किया । राजा कुरु के महातप से प्रसन्न होकर श्री ताप्ती जी राजा कुरु के सामने प्रकट हुई । तब राजा कुरु ने ताप्ती जी को प्रणाम करते हुये उनकी स्तुति कि तब ताप्ती जी मधुर वचन मॆ बोली हे पुत्र ! जो तीनो लोको मॆ दुर्लभ हो वह वर आज मैं तुम्हे दूँगी । हे वीर पुत्र तू दृढ़ निश्चय वाला तथा पराक्रम वाला और सत्यव्रत वाला हैं । राजा कुरु बोले हे देवी आप मुझ पर प्रसन्न हुई हो तो तीनो लोकों मॆ चिरकाल तक मेरी कीर्ति बनी रही ॥ यही वरदान मुझे दो । श्री ताप्ती जी बोली हे पुत्र कुरु नाम से यह क्षेत्र प्रसिद्ध होंगा और मेरे प्रभाव से इस क्षेत्र मॆ प्राणी पाप से मुक्त होंगे ।
हे पुत्र पॄथ्वी पर जो पुरुष जो पुरुष कुरुक्षेत्र मॆ जाकर पाप रत होंगा तो मैं पुत्र कि तरह उसका उद्धार करूँगी ।
सुंदर कुरुक्षेत्र मॆ सूर्यग्रहण के समय स्नान करने से जो पुण्य मिलता हैं उससे करोडो गुणा अधिक पुण्य ताप्ती के कुरुक्षेत्र मॆ स्नान करने से मिलता हैं । बाद मॆ ताप्ती ने राजा कुरु को मनोरथ की सिद्धि दी । यहाँ के जल मॆ कुरुतीर्थे्श्वर नामक शिवलिंग हैं जिसका सात दिन रात सेवन करने से कौन स्वर्ग नही जायेंगा । इस कुरु तथा ताप्ती संगम का सेवन करने से क्षय रोगी कुष्ठ रोगी बहरे गूंगे आदि कृतार्थ होती हैं ।
इतना कहकर ताप्ती देवी अंतरध्यान हो गयी । राजा कुरु ने अपने राज दरबार की मिट्टी मॆ प्रजातंत्र का पहला बिच डाला और जन्म और कर्म के बिच एक रेखा डालकर ये कहाँ की जीवन का अर्थ जन्म नही कर्म हैं क्यूकी कुरुक्षेत्र वास्तव मॆ धर्मक्षेत्र हैं । आगे चलकर राजा कुरु का विवाह ने स्वर्ग की अप्सरा सुकेशी के साथ हुआ ॥
राजा कुरु सूर्यनारायण के अनन्य भक्त थे उनकी कृपा से कुरु ने कुरुक्षेत्र बसाया । माँ ताप्ती पूत्र राजा कुरु एक अत्यंत प्रतापी राजा हुये जो महभारत मॆ कौरव और पांडवों के पितामह हुये ।
पार्ट - 06
शिव जी बोले - हे पुत्र कार्तिकेय ! जब श्री ताप्ती जी के पुत्र राजा कुरु ने इस क्षेत्र की बार बार हल चलाकर जुताई कर रहे थे , तब इन्द्र ने उनसे जाकर इसका कारण पूछा। कुरु ने कहा कि जो भी व्यक्ति इस स्थान पर मारा जाए, वह पुण्य लोक में जाए, ऐसी मेरी इच्छा है। इन्द्र उनकी बात को हंसी में उड़ाते हुए स्वर्गलोक चले गए।
ऐसा अनेक बार हुआ। इन्द्र ने अन्य देवताओं को भी ये बात बताई। देवताओं ने इन्द्र से कहा कि यदि संभव हो तो कुरु को अपने पक्ष में कर लो। तब इन्द्र ने राजा कुरु के पास जाकर कहा कि कोई भी पशु, पक्षी या मनुष्य निराहार रहकर या युद्ध करके इस स्थान पर मारा जायेगा तो वह स्वर्ग का भागी होगा। इन्द्र की बात मान कर राजा कुरु ने हल चलाना बंद कर दिया । ये बात भीष्म, कृष्ण आदि सभी जानते थे, इसलिए महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र में लड़ा गया। कुरुवंश की बढायी इसलिये नही है कि उसने कुरुक्षेत्र राज्य कि सीमायें कैलाश से लेकर सागर तक फैला दी थी.राजा कुरु कि बढायी इसमॆ भी है कि उन्होने ठीक अपने राज दरबार कि मिट्टी मॆ प्रजातंत्र का पहला बीज डाला तथा जन्म और कर्म
बिच मॆ एक रेखा डालकर ये कहाँ की जीवन का अर्थ जन्म नही है, कर्म है ।
हे पुत्र...जिस तरह राजा कुरु के शासन मॆ धर्मक्षेत्र कर्मक्षेत्र का जो अंकुर फूटा था कूछ समय बाद हस्तनापूर मॆ नरेश शांतनु के शासन काल मॆ मुर झा गया ।
गंगाजी को आखिर शांतनु के संग विवाह करके ताप्ती जी की पौत्र वधू बनना स्वीकार करना पढ़ा ।
जब गंगाजी पटरानी बनकर हस्तनापूर मॆ आई तो सारे राज्य मॆ दुखों का पहाड़ गिर गया । राजा शांतनु गंगाजी के प्रेम मॆ इतने लिप्त हो गये की उनके प्रजा की थोड़ी सी भी चिंता ना रही । आखिर वो दिन आ गया जब गंगा जी ने बालक को जन्म दिया ,गंगा जी ने उस बालक को जन्म लेते उसे नदी मॆ बहा दिया । राजा शांतनु वचन बद्ध होने के कारण देखते रहे की एक माँ ही अपने बालक को जन्म लेते ही नदी मॆ बहा रही है ।
कि प्रजा मॆ हा हा कार मच गया । गंगाजी जैसी दुर्भाग्य माता को सारी प्रजा कोसने लगी । हस्तनापूर कि सारी प्रजा नये युवराज कि प्रतीक्षा देख रही थी । प्रजा ने तो यहाँ तक कह दिया कि यह स्त्री ही नही है ,इसमे स्त्री के तीन गुणों मॆ से एक भी गुण नही है ,ना चेतना ,प्रेरणा और ना ही उत्साह है । महाराज ने कैसे स्त्री को हमारी पटरानी बना के रखा ।
इस तरह आठवें पुत्र के के वक्त राजा शांतनु ने अपने दिये वचन को तोड़ा और अपने सातो पुत्रों कि मृत्यु का कारण पूछा :-
तब गंगा जी बोली - हे महाराज मैंने आपके सातो पुत्रों कि हत्या नही की है , मैंने उन्हे गुरु वशिष्ठ के श्राप से मुक्त कराया है । मैं ब्रम्हपुत्री गंगा आपके साथ एक श्राप जी रही हूँ ।
तब राजा शांतनु बोले -कैसा श्राप देवी मुझे सह विस्तार बताये ।
गंगाजी बोली- महाराज आपके पितामह राजा गुरु की माता श्री ताप्ती जी ने मुझे उनके वंश वे वधू बनकर आने और वंशबेल ना बढ़ पाने का श्राप दिया था ।
ऐसा सुनकर महाराज शांतनु बोले -देवी क्या हमारे इस आठवें पुत्र से भी वंशबेल नही बढ़ पायेँगी ।
गंगाजी बोली -महाराज इस पुत्र का नाम मैं देवव्रत रख रही हूँ ,यह पुत्र भी आपकी वंश बेल नही बड़ा पायेंगा ।
गंगाजी और महाराज शांतनु के आठवें पुत्र को अखंड ब्रम्हचर्य की भीष्म प्रतिज्ञा लेना पड़ा । हे पुत्र ! शास्त्रों मॆ कहाँ गया है कि यदि भूलवश अनजाने से किसी मृत देहकी हट्टी ताप्ती जल मॆ प्रवाहित हो जाती है , तो उस मृत आत्मा को मुक्ति मिल जाती है । जिस प्रकार महाकाल के दर्शन करने से अकाल मौत नही होती है ,ठीक उसी प्रकार किसी भी जल मॆ प्रवाहित करने या उसका अनुसरण करके उसे तापी जल मॆ प्रवाहित किये जाने से अकाल मृत का शिकार बनी आत्मा को भी प्रेत योनी से मुक्ति मिल जाती है ।
इस तरह श्री ताप्ती का दिया सिध्द हुआ ।
पार्ट - 07
शिव जी भोले - हे पुत्र ! भगवान श्री कृष्ण के स्वर्गलोक प्रस्थान करते ही महापराक्रमी पाँच पाण्डव अभिमन्मु पूत्र परीक्षित को राज्य देकर महाप्रयाण हेतू उत्तराखण्ड की ओर चले गये ,वहा जाकर पुण्यलोक को प्राप्त हुए । उसके बाद राजा परीक्षित की साँप के डंसने से मृत्यु हुई जिसका बदला लेने के लिये उनके पुत्र ने महाविनाशी सर्प यज्ञ किया था । श्री ताप्ती जी की कृपा से राजा जन्मेजय ने सर्प विनाश महायज्ञ से हुई आत्म ग्लानि से शांति पाई ।
कार्तिकेय जी बोले - हे प्रभु ! राजा परीक्षित को सर्प ने क्यों काँटा ? महाविनाशी सर्प यज्ञ किस प्रकार हुआ । मुझे सह विस्तार कहिये !
शिव जी बोले -हे पुत्र ! एक दिन राजा परीक्षित ने सुना
कि कलियुग उनके राज्य में घुस
आया है और अधिकार जमाने का
मौका ढूँढ़ रहा है। ये उसे अपने
राज्य से निकाल बाहर करने के
लिये ढूँढ़ने निकले। एक दिन इन्होंने
देखा कि एक गाय और एक बैल
अनाथ और कातर भाव से खड़े हैं और
एक शूद्र जिसका वेष, भूषण और
ठाट-बाट राजा के समान था,
डंडे से उनको मार रहा है। बैल के
केवल एक पैर था। पूछने पर परीक्षित
को बैल, गाय और राजवेषधारी
शूद्र तीनों ने अपना अपना परिचय
दिया। गाय पृथ्वी थी, बैल धर्म
ता और शूद्र कलिराज। धर्मरूपी
बैल की सत्य, तप और दयारूपी
तीन पैर कलियुग ने मारकर तोड़
डाले थे, केवल एक पैर दान के सहारे
वह भाग रहा था, उसको भी तोड़
डालने के लिये कलियुग बराबर
उसका पीछा कर रहा था। यह
वृत्तांत जानकर परीक्षित को
कलियुग पर बड़ा क्रोध हुआ और वे
उसको मार डालने को उद्यत हुए।
पीछे उसके गिड़गिड़ाने पर उन्हें
उसपर दया आ गई और उन्होंने उसके
रहने के लिये ये स्थान बता दिए—
जुआ, स्त्री, मद्य, हिंसा और
सोना । इन पाँच स्थानों को
छोड़कर अन्यत्र न रहने की कलि ने
प्रतिज्ञा की। राजा ने पाँच
स्थानों के साथ साथ ये पाँच
वस्तुएँ भी उसे दे डालीं—मिथ्या,
मद, काम, हिंसा और बैर। इस घटना
के कुछ समय बाद महाराज
परीक्षित एक दिन आखेट करने
निकले। कलियुग बराबर इस ताक में
था कि किसी प्रकार परीक्षित
का खटका मिटाकर अकंटक राज
करें। राजा के मुकुट में सोना था
ही, कलियुग उसमें घुस गया। राजा
ने एक हिरन के पीछे घोड़े को दौड़ाया बहुत दूर तक पीछा करने पर भी वह न
मिला। थकावट के कारण उन्हें
प्यास लग गई थी। एक वृद्ध मुनि
(शमीक) मार्ग में मिले। राजा ने
उनसे पूछा कि बताओ, हिरन
किधर गया है। मुनि मौनी थे,
इसलिये राजा की जिज्ञासा
का कुछ उत्तर न दे सके। थके और
प्यासे परीक्षित को मुनि के इस
व्यवहार से बड़ा क्रोध हुआ।
कलियुग सिर पर सवार था ही,
परिक्षित ने निश्चय कर लिया
कि मुनि ने घमंड के मारे हमारी
बात का जवाब नही दिया है और
इस अपराध का उन्हें कुछ दंड होना
चाहिए। पास ही एक मरा हुआ
साँप पड़ा था। राजा ने कमान
की नोक से उसे उठाकर मुनि के गले
में डाल दिया और अपनी राह
ली।
मुनि के श्रृंगी नाम का एक
महातेजत्वी पुत्र था। वह किसी
काम से बाहर गया था। लौटते
समय रास्ते में उसने सुना कि कोई
आदमी उसके पिता के गले में मृत सर्प
की माला पहना गया है।
कोपशील श्रृंगी ने पिता के इस
अपमान की बात सुनते ही हाथ में
जल लेकर शाप दिया कि जिस
पापत्मा ने मेरे पिता के गले में मृत
सर्प की माला पहनाया है, आज
से सात दिन के भीतर तक्षक नाम
का सर्प उसे डस ले। आश्रम में पहुँचकर
श्रृंगी ने पिता से अपमान
करनेवाले को उपर्युक्त उग्र शाप देने
की बात कही। ऋषि को पुत्र के
अविवेक पर दुःख हुआ और उन्होंने
एक शिष्य द्वारा परीक्षित को
शाप का समाचार कहला भेजा
जिसमें वे सतर्क रहें। परीक्षित ने
ऋषि के शाप को अटल समझकर
अपने पुत्र जनमेजय को राज पर
बिठा दिया और सब प्रकार मरने
के लिये तैयार होकर अनशन व्रत
करते हुए श्रीशुकदेव जी से श्रीमद्
भागवत की कथा सुनी।
राजा परीक्षित ने हर मुमकिन
कोशिश की कि उनकी मौत
सांप के डसने से न हो। उन्होंने सारे
उपाय किए ऐसी जगह पर घर
बनवाया जहां परिंदा तक पर न
मार सके। लेकिन ऋषि का शाप
झूठा नहीं हो सकता था। जब
चारों तरफ से राजा परीक्षित ने
अपने आपको सुरक्षित कर लिया
तो एक दिन एक ब्राह्मण उनसे
मिलने आए। उपहार के तौर पर
ब्राह्मण ने राजा को फूल दिए
और परीक्षित को डसने वला वो
काल सर्प ‘तक्षक’ उसी फूल में एक
छोटे कीड़े की शक्ल में बैठा था।
तक्षक सांपो का राजा था।
मौका मिलते ही उसने सर्प का
रुप धारण कर लिया और राज
परीक्षित को डस लिया।
राजा परीक्षित की मौत के
बाद राजा जनमेजय हस्तिनापुर
की गद्दी पर बैठे। जनमेजय पांडव
वंश के आखिरी राजा थे।
जनमेजय को जब अपने पिता की
मौत की वजह का पता चला तो
उसने धरती से सभी सांपों के
सर्वनाश करने का प्रण ले लिया
और इस प्रण को पूरा करने के लिए
उसने सर्पमेध यज्ञ का आयोजन
किया। इस यज्ञ के प्रभाव से
ब्रह्मांड के सारे सांप हवन कुंड में
आकर गिर रहे थे।
उन यज्ञों में
नागों को पटक दिया जाता था। एक
विशिष्ट मंत्र द्वारा नाग स्वयं यज्ञ के
पास पहुंच जाते थे। देशभर में नागदाह
नामक स्थानो पर यज्ञ चालु कर दिये ।
कोई-कोई एक कोस लम्बे तथा कोई चार
कोस लम्बे, कोई केवल गाय के कान जैसे
प्रमाण वाले सर्प बड़ी तेजी से अग्रिकुण्ड में
भस्म हो रहे थे। इस प्रकार लाखों, करोड़ों-
अरबों सर्प मंत्राकर्षण से विवश होकर नष्ट
हो गए। कुछ सर्पों की आकृति घोड़े की
सी, किसी की हाथी की सूंड की सी,
मतवाले हाथी जैसे विशाल नाग, भयंकर
विष वाले छो-बड़े अनेको सर्प ।
सर्पदाह के एक
घनघोर यज्ञ की अग्नि से एक कर्कोटक
नामक सर्प ने अपनी जान बचाने के लिए
उज्जैन में महाकाल राजा की शरण ले ली
थी जिसके चलते वह बच गया था।
लेकिन सांपों
का राजा तक्षक, जिसके काटने
से परीक्षित की मौत हुई थी, खुद
को बचाने के लिए सूर्य देव के रथ से
लिपट गया और उसका हवन कुंड में
गिरने का अर्थ था सूर्य के
अस्तित्व की समाप्ति जिसकी
वजह से सृष्टि की गति समाप्त
हो सकती थी।
सूर्यदेव और ब्रह्माण्ड की रक्षा
के लिए सभी देवता जनमेजय से इस
यज्ञ को रोकने का आग्रह करने लगे
लेकिन जनमेजय किसी भी रूप में
अपने पिता की हत्या का बदला
लेना चाहता था।
जनमेजय के
यज्ञ को रोकने के लिए
अस्तिका मुनि को हस्तक्षेप
करना पड़ा, जिनके पिता एक
ब्राह्मण और मां एक नाग कन्या
थी।
अस्तिका मुनि की बात
जनमेजय को माननी पड़ी और
सर्पमेध यज्ञ को समाप्त कर तक्षक
को मुक्त करना पड़ा।
उसके ही प्रयासों से वह महासर्प
विनाशी यज्ञ बंद हो गया
और वासुकि, तक्षक आदि नागों की
रक्षा हुई। दोषी-निर्दोष सभी सर्पों
की महान् हिंसा से राजा जन्मेजय के हृदय
में अत्यंत ग्लानि हुई। उसी कुण्ठा से
कुण्ठित राजर्षि जन्मेजय अधीरतापूर्वक कृष्ण द्वैपायन व्यास जी के समीप
गए और अपना दुख निवेदन किया। उनके दुख
निवारण को व्यास जी बोले- वत्स!
संसार में संपूर्ण पाप-ताप का निवारण
भगवती पुण्य सलिला ताप्ती की शरण ग्रहण करने से हो
जाता है; चाहे वह ताप किसी भी
निमित्त उत्पन्न हुआ हो।
आषाढ़ शुक्ल सप्तमी के दिन व्यास जी के बताये निर्देश पर मां ताप्ती के तट पर महा पुंजन का आयोजन किया । जिसमें
देवता, गन्धर्वगण, किन्नर समूह, नागगण,
सिद्धगण, चारणों के समूह और मनुष्यों के
झुण्ड सभी को भक्ति के भाव-प्रवाह में
निमग्र हो गये। आकाश में बादल भी
भावविभोर होकर दिव्य जल की धीमी-
धीमी फुहार छोड़ रहे थे, और भक्तों का
समूह गन्ध, अक्षत व धूप दीपमाला द्वारा
पूजन कर रहा था। सिद्ध चारण दिव्य
स्त्रोतों के द्वारा भगवती सूर्यपुत्री
तपती की स्तुति कर रहे थे। गन्धर्व गण अनेक
प्रकार के वाद्ययंत्रों को बजाकर ललित
कण्ठ से उनकी कीर्ति का गान कर रहे थे।
अप्सराएं नृत्य कर रही थीं।
तपती पूजन के बाद मां ताप्ती जी को जन्मेजय द्वारा सुहाग सामग्री भेट कर दुग्धाभिषेक किया गया ।
उपरांत एक वटवृक्ष के नीचे उच्च व खण्ड
पर काले हिरण की मृगछाला के आसन पर
हजारों मुनियों से घिरे श्री कृष्ण द्वैपायन
व्यास आनंद में विराज रह थे, तब परीक्षित
नंदन जन्मेजय ने प्रणाम करके पूछा- हे सर्वज्ञ
गुरुदेव! सम्पूर्ण पाप-ताप का हरण करने
वाली परम कृपामयी तापी मांई सम्पुर्ण महात्म बताईये ।