गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

अम्बा देवी रॉक शेल्टर दे सकता भारत मे बैतूल को अलग पहचान

हम बात कर रहे आठनेर ब्लॉक के महाराष्ट्र सीमा पर स्थिति धारूल अम्बा देवी धाम से प्रख्यात स्थान की जहां आसपास के जंगलों मे उची उची पहाड़ियों में चट्टानों पर बहुत अधिक मात्रा में भित्ति चित्र पाये गए हैं यह भित्ति चित्र आम व्यक्ति के लिए सिर्फ एक पेंटिंग है वही खोज कर्ताओ के अनुसार यह 21 वी शताब्दी की अदिव्तीय खोज होंगी जो 25000 हजार वर्ष पूर्व के इतिहास में बैतूल जिले में मानव जाति के विस्तार का बखान कर सकती है
सतपुड़ा ताप्ती मे रॉक शेल्टर पेन्टिंग जिले के कई लोगो ने देखी होंगी या कही उसके बारे में सुना होंगा
वही महाराष्ट्र के डॉ वी.टी. इंगोले ने बताया कि उनकी खोज टीम ने 2006 की शुरुआत में इस क्षेत्र में रॉक शेल्टर पेंटिंग की पहली खोज के बाद और अधिक रॉक शेल्टर की खोज की है और शायद अभी तक कई की खोज की जानी है।वही इन भित्ति चित्रों से ऐसा प्रतीत होता है कि ऊपरी पुरापाषाण (25000 ई.पू )से लेकर प्रागैतिहासिक काल (600 ई. पू.)तक बहुत लंबे समय तक इस क्षेत्र पर मानव जाति का कब्ज़ा रहा होंगा । इस क्षेत्र में प्रारंभिक मानव बसने वालों की कला बहुत समृद्ध प्रतीत होती है। जिनमे कछुओं के कई चित्र पाए गए हैं और उनकी पेंटिंग में जानवरों की पेंटिंग के साथ-साथ ज्यामितीय रूपांकन भी पाया गया है। पशु चित्रों की संख्या, बहुत अच्छी स्थिति में पहचानी नहीं जा सकती है, क्योंकि वे इस क्षेत्र या भारतीय उप-महाद्वीप में किसी भी जीवित जानवरों के साथ नहीं मिलते हैं। हमारा उद्देश्य इस क्षेत्र में प्रारंभिक मानव बसने वालों की समृद्धि और विशिष्ट कला को सामने लाना है ताकि आगे की विस्तृत जांच शुरू की जा सके। वही डॉ वी टी इंगोले ने कहा कि यह शैलाश्रयों के प्रत्येक स्थान पर अलग-अलग अनुभव आ रहे थे। प्रत्येक शैलाश्रय की रचना भिन्न-भिन्न थी। कहीं गुफा में गूढ़ समाधि दिखती थी, तो कहीं, कभी प्रपात गिरने के चिन्ह, कहीं छत,थी। रंगीन चित्रकला से लेकर तो कुरेदे हुए चित्रों तक की यात्रा, लिंगपूजा ये सारी बातें विस्मयकारक थीं।
वही यह आदि मानव का पहला पग भले ही यहाँ न गिरा हो, फिर भी उनका सर्वप्रथम गृह (गुफा) प्रवेश मात्र निश्चित यहीं हुआ होगा। इस विषय में कोई आशंका नहीं है। 25000 से 26000 वर्षों पुराना यह वसतीस्थान बैतूल से 90 कि.मी एवं अमरावती से केवल 60 कि.मी. अन्तर पर है। यह अब तक अज्ञात कैसे रहा, यह एक रहस्य ही है। अंग्रेजों के भी नजरों से यह बचा रहा, यह भी एक आश्चर्य ही है। हो सकता है की हमारा काम यहीं रुका नही हो। और कई क्षितिज बाकी हैं। इस अभूतपूर्व खोज के उपरान्त यह प्रश्न लोग लगातार पुछ रहे थे। की क्या है अब हमारी मुहीम ने अश्मयुग के मानव इतिहास से लेकर लोहयुग तक का अध्ययन शुरू किया है। क्या हडप्पन संस्कृति का इस सभ्यता के साथ जोड हो, क्या ऐसे कोई प्रमाण मिल सकते हैं? इन सारी बातों पर संशोधन शुरू है और अगर वह प्रमाण मिल गया तो मध्यप्रदेश की यह धरती महन्जो—दाडो-हडप्पन संस्कृति की नींव है, यह बात सिद्ध होगी।
इस भित्तिचित्रों की कला का तत्कालीन भारतीय समाज के साथ निश्चित संबंध स्पष्ट करना कठिन है। उसके लिए अधिक सबूतों की आवश्यकता है। साथ ही उन चित्रों का वैज्ञानिक अध्ययन भी जरूरी है।
इस खोज की विस्तृत जानकारी प्रोफेसर डॉ.वी. टी. इंगोले ने अपनी पुस्तक अश्म युगांतर में विस्तार से हिंदी भाषा में लिखी ही है।




















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